Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 215
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 201 कम्बल सम्बल का कथानक ___मथुरा नगरी में जिनदास वणिक-श्रावक रहता था। उसकी पत्नी सोमदासी श्राविका थी। वे दोनों जीवादि नौ तत्त्वों के ज्ञाता तथा बारह व्रतों के धारक थे। उन्होंने चतष्पद रखने का प्रत्याख्यान कर लिया था, इसलिए वे दूसरों से दूध लेते थे। एक दिन एक आभीरी गोरस लेकर आई। श्राविका ने उससे कहा- "गोरस बेचने के लिए तुम अन्यत्र मत जाया करो। तुम जितना गोरस लाओगी, मैं ले लूंगी।" इस प्रकार, दोनों में परस्पर बातचीत हो गई। श्राविका उसको गंधपुट आदि देती और वह आभीरी श्राविका को दूध-दही देती। इस प्रकार, दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। एक बार आभिरी के घर गोपाल का विवाह था। उसने जिनदास श्रावक व श्राविका-दोनों को निमंत्रण दिया। श्रावक बोला- "अभी हम बहुत व्यस्त हैं, वहाँ नहीं आ सकते। तुम्हें विवाह-कार्य में भोजन के लिए कड़ाह आदि बरतन तथा वस्त्र, आभरण, पुष्प, फल आदि जो वस्तुएँ चाहिए, वह यहाँ से ले जाओ।" आभिरी सारी वस्तुओं को पाकर परम प्रसन्न हुई। लोगों ने उसकी बहुत प्रशंसा की। उस आभीरी ने सेठ को तीन वर्षीय कंबल-संबज नाम बाले दो बैल दिए! श्रावक लेना नहीं चाहता था, फिर भी बलात् उन दोनों बैलों को उसके घर बांध दिया। एक दिन श्रावक ने सोचा'यदि मैं इन बैलों को ऐसे ही छोड़ देता हूँ, तो दूसरे लोग इनको वाहन में जोत लेंगे, अतः अच्छा हो ये यहीं रहें। वह उनका प्रासुक चारे आदि से पोषण करने लगा। श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करता, धर्म-ग्रन्थों को पढ़ता, वे दोनों बैल उसे ध्यान से सुनते। श्रावक उपवास करता, तो वे भी भूखे रहते। दोनों बैल भद्र और सम्यकत्व युक्त थे। श्रावक ने सोचा कि ये दोनों बैल भव्य हैं, उपशान्त हैं। श्रावक और बैलों में परस्पर बहत स्नेह हो गया। एक बार नगर में भंडीरमण-यात्रा का आयोजन था। श्रावक का मित्र 'भंडीरमण-यात्रा में बिना पूछे ही दोनों बैलों को ले गया। उनको खूब दौड़ाया। दोनों बैल परिश्रान्त हो गए। उसने दोनों को लाकर श्रावक के घर बांध दिया। उसी दिन से दोनों ने चारा-पानी छोड़ दिया। अन्त में, श्रावक ने दोनों बैलों को अनशन कराया। तब, श्रावक उन्हें भक्तप्रत्याख्यान कराकर नमस्कार-मंत्र सुनाता रहा। वे मरकर नागकुमार देव-योनि में उत्पन्न हुए। यह कथा आराधनापताका (834) के साथ-साथ आवश्यकनियुक्ति (470) में भी वर्णित है, जो पशुयोनि में समाधिमरण की साधना का निर्देश करती है। चण्ड कौशिक का कथानक चण्ड कौशिक के कथानक का निर्देश आराधनापताका की गाथा 835 में हुआ है। चौबीसवें जैन-तीर्थंकर थे, भगवान् महावीर। एक बार वाचाला नगर की ओर जिस मार्ग से वे जा रहे थे, वह वाचाला के उत्तर में वनखण्ड को होकर जाता था। तभी पीछे से भागते हुए कुछ ग्वाले महावीर को पुकार कर बोले- "भिक्षुक! ओ भिक्षुक! रुको! इधर मत जाओ। महावीर ठहर गए समीप आए ग्वालों से महावीर ने पूछा- "क्यों, क्या बात है ? तुम मुझे किस लिए पुकार रहे हो?" ग्वालों ने कहा- "आगे एक भयंकर सर्प रहता है। उसका नाम चंडकौशिक सर्प है। वह बड़ा विषैला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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