Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 222
________________ 208 साध्वी डॉ. प्रतिभा प्राप्त होना चाहिए। यदि व्यक्ति अपने शरीर के अनुचित उपयोग के कारण दोषी माना जाता है, तो उसे उसके सम्यक् उपयोग के लिए प्रशंसित भी किया जाना चाहिये। जैन-धर्म-दर्शन यह तो नहीं कहता है कि कोई भी व्यक्ति दुःखों या कष्टों से ऊबकर अपनी आत्महत्या कर ले। किन्तु वह इतना अवश्य मानता है कि यदि मृत्यु अपरिहार्य रूप से द्वार पर दस्तक दे रही है, तो उससे भागने या लुकाछिपी करने का प्रयत्न भी एक कायरतापूर्ण स्थिति होगी, अतः जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु का समभावपूर्वक स्वागत करना - यह एक वीरतापूर्ण कार्य ही माना जाना चाहिए। यदि शरीर को अधिक समय तक जीवित रखा जा सकता है, तो हमें यह अधिकार है कि हम उसका संरक्षण करें, किन्तु यदि मृत्यु सन्निकट और अपरिहार्य बन गई है, तो फिर उस मृत्यु से लुकाछिपी खेलने का हमें अधिकार नहीं। उस स्थिति में, देह के ममत्व से ऊपर उठना ही होगा। समाधिमरण अन्य कुछ नहीं, मृत्यु की अपरिहार्य उपस्थिति में समभावपूर्वक उसका स्वागत करना है और यह उचित है। समाधिमरण की प्रासंगिकता यह सत्य है कि अज्ञात अतीत से लेकर आज तक मानव-जीवन मृत्यु की गोद में समाता रहा है। जन्म के साथ मृत्यु की अपरिहार्यता कोई भी अस्वीकार नहीं करता। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि यदि जन्म मिला है, तो मृत्यु अवश्य आएगी, किन्तु इस अपरिहार्य सत्य को मानव सहजतापूर्वक आत्मसात् नहीं कर सका है। मृत्यु को उपस्थित देखकर न केवल व्यक्ति स्वयं, अपितु उसके परिजन भी विचलित हो उठते हैं। मृत्यु की अपरिहार्यता को स्वीकार करते हुए भी मानव-जाति सदैव उससे भयभीत बनी रही है और व्यक्ति सदैव ही उसके साथ लुकाछिपी का खेल-खेलता रहा है। जिस प्रकार मानव-शिशु का जन्म आनन्द और उल्लास का विषय बना रहा है, उसी प्रकार मत्य को मानव जाति कभी भी आनन्द और उल्लास का विषय नहीं बना पायी. हम मृत्यु की अपरिहार्यता के सत्य को नकारते ही रहे हैं, इसका मूलभूत कारण व्यक्ति की संसार के भोगों के प्रति आसक्ति ही माना जा सकता है। समाधिमरण मृत्यु की वह कला सिखाता है, जिसमें मृत्यु को उत्सव बनाया जा सकता है। यदि मारना ही है, तो फिर रो-रोकर क्यों मरा जाय? ___ वस्तुतः, हम मृत्यु के सत्य को नकारने का ही प्रयत्न करते रहे हैं। समाधिमरण वस्तुतः उस कला को सिखाता है, जिससे व्यक्ति में मत्य का साहसपर्वक सामना करना आ जाता है। संक्षेप में कहें, तो समाधिमरण वस्तुतः अनासक्त जीवन-शैली का ही नाम है। यदि आज हम मानव-जाति की पीड़ा को समझने का प्रयत्न करें, तो एक ही सत्य हमारे सामने प्रकट होता है कि मनुष्य की भोगाकांक्षा और तृष्णा ही उसके सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। वस्तुतः, इसका भी मूल कारण व्यक्ति की नासमझी ही माना जा सकता है। यह सत्य को नकारने का प्रयत्न ही है, जिसे जैन-दर्शन में मिथ्या दृष्टिकोण कहा गया है। मनुष्य दो तथ्यों को ईमानदारी से स्वीकार नहीं कर रहा है। एक तो यह कि जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु अपरिहार्य है और दूसरे, व्यक्ति जिन संयोगों को अपना मान रहा है, उनका वियोग अपरिहार्य है। सही समझ यह कहती है कि जो छूटने वाला है, या जिसे छोड़ना पड़ेगा, अर्थात् जिसका वियोग निश्चित है, उस पर ममत्व का आरोपण क्यों किया जाए? मनुष्य का दुर्भाग्य यह है कि वह, जो वियोगधर्मा है, उसे अपना मानकर पकड़कर रखना चाहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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