Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 221
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 207 किन्तु उनका यह सोच उचित नहीं है, क्योंकि इन दोनों ही स्थितियों में तात्कालिक रूप से मृत्यु को निमंत्रण दिया जाता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु को निमंत्रण नहीं दिया जाता, अपितु उपस्थित मृत्यु का स्वागत किया जाता है। यदि जीवन जीने के साधनों का अपनी इच्छानुसार उपयोग करने का व्यक्ति को अधिकार है, तो फिर हमें यह भी मानना होगा कि उन साधनों के उपयोग नहीं करने में भी व्यक्ति स्वतन्त्र है और यह स्वतन्त्रता ही समाधिमरण का अधिकार प्रदान करती है। करूणामृत्यु और समाधिमरण वर्तमान युग में करुणा-मृत्यु की बात प्रमुख रूप से चर्चित है। क्या अत्यधिक कष्टमय जीवन जीने के लिए व्यक्ति को विवश किया जा सकता है? कोई भी समझदार व्यक्ति यह नहीं व्यक्ति को अत्यधिक कष्ट भोगने के लिए विवश किया जाए. हम देखते है कि आधनिक युग में ही महात्मा गाँधी ने अत्यधिक देहिक-पीड़ा को भोग रहे एक बछड़े को गोली मरवाकर पीड़ा से मुक्ति दिलायी, यह ठीक है कि कोई भी प्राणी सामान्य स्थिति में मरना नहीं चाहता, किन्तु जब मृत्यु अपरिहार्य बन गई हो और जीवन अत्यधिक कष्टमय बन गया हो, तो क्या उस कष्ट से मुक्ति पाने का अधिकार व्यक्ति के पास नहीं होना चाहिए ? यदि हम जीवन जीने की इच्छा के आधार पर जीने के अधिकार को मान्यता देते है तो हमें दुःख से मुक्ति पाने की हर प्राणी की इच्छा को प्रधानता देकर यह भी मानना होगा कि विशेष परिस्थितियों में उसे देहत्याग का अधिकार भी मिलना चाहिए। क्या यातनामय जीवन जीने के लिए मनुष्य को विवश किया जा सकता है? यदि ऐसा नहीं है, तो फिर व्यक्ति को अति पीड़ाजनक स्थिति में अपने शरीर को छोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर रज्जनकुमार' का कथन है कि "एक दुःखी एवं असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को सुखमय मृत्यु अथवा कष्टप्रद जीवन में से किसी एक को चयन करने का अधिकार मिलना ही चाहिए। यदि वर्तमान का औषधि-विज्ञान भी रोगी की सहायता करने में अक्षम हो एवं रोगी की मृत्यु होना निश्चित है, तो व्यक्ति को कष्टपूर्वक मरते हुए देखने का क्या औचित्य है ? ऐसे रोगग्रस्त व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण करने का अधिकार मिलना ही चाहिए और यह उचित भी है, किन्तु इसके विरोध में यह भी कहा जा सकता है कि एक ओर कैंसर तथा इसी तरह के अन्य असाध्य रोगों के निवारण की दिशा में शोधकार्य चल रहे हैं तथा मानव के मन में शा की ज्योति प्रज्ज्वलित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, तो फिर स्वेच्छा से मृत्युवरण सदृश कुण्ठित विचारधाराओं को प्रोत्साहन देने का कोई औचित्य नहीं है, किन्तु जब तक उन असाध्य रोगों के निवारण को सुनिश्चित नहीं कर दिया जाता है और मृत्यु की अपरिहार्यता को समाप्त नहीं कर दिया जाता है, तब तक रोग की असाध्यता और मृत्यु की निकट भविष्य में अपरिहार्यता की स्थिति में समाधिमरण का अधिकार मान्य करना होगा। दसरे यदि हम यह मानते है कि व्यक्ति को सम्पत्ति के उपयोग का और उसके त्याग का - दोनों ही अधिकार हैं, तो फिर हमें यह मानना होगा कि शरीर भी व्यक्ति की सम्पत्ति ही है। अतः उसके उपयोग और संरक्षण के समान ही उसके त्याग का भी अधिकार व्यक्ति को 'समाधिमरण - रज्जनकुमार, पृ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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