Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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2.
आत्महत्या में मृत्यु को निमंत्रण दिया जाता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु को निमंत्रण नहीं देकर, मृत्यु को जीवन की दहलीज पर दस्तक देते हुए देखकर उसका स्वागत किया जाता है। आत्महत्या में मरने की इच्छा होती है, जबकि समाधिमरण में न तो जीने की
आकांक्षा होती है, न मरने की इच्छा ही होती है। 3.
आत्महत्या स्वस्थ और जीवन जीने में समर्थ व्यक्ति भी कर लेता है, जबकि समाधिमरण ग्रहण करने का अधिकार केवल उसी व्यक्ति को होता है, जिसके
लिए मृत्यु निकट भविष्य में ही अपरिहार्य बन गई है। जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति को समाधिमरण ग्रहण करने का अधिकार तभी होता है, जब वह अतिवद्ध हो गया हो. जीवन के स्वकर्तव्यों एवं दायित्वों के पालन में असमर्थ हो गया हो तथा दूसरे लोगों पर भारभूत हो गया हो। इस प्रकार समाधिमरण में विशिष्ट परिस्थिति में ही मृत्यु को स्वीकार करने का अधिकार माना जाता है, जबकि आत्महत्या में इस प्रकार की कोई बाध्यता नहीं होती। व्यक्ति जीवन में उद्विग्न होकर कभी भी किन्हीं भी परिस्थितियों में आत्महत्या कर लेता है।
समाधिमरण शान्तचित्त से और समभावपूर्वक ही ग्रहण किया जाता है, जबकि आत्महत्या उद्विग्नतापूर्वक तथा राग-द्वेष के भावपूर्वक होती है। समाधिमरण नैतिक मूल्यों के या सम्यक-चारित्र के संरक्षण के लिए ही किया जा सकता है, जबकि आत्महत्या भोगाकांक्षा में भी कर ली जाती है। अक्सर हम देखते हैं कि प्रेमी या प्रेमिका अपने प्रयत्नों में असफल होने पर आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार समाधिमरण में नैतिक और चारित्रिक-मूल्यों का संरक्षण ही मुख्य होता है, जबकि आत्महत्या के पीछे भोगाकांक्षा ही प्रबल होती है।
समाधिमरण किन परिस्थितियों में किया जा सकता है, इसे स्पष्ट करते हुए 'रत्नकरंडक-श्रावकाचार' में कहा गया है कि (i) जब किसी के द्वारा दिए गए उपसर्ग में जब मृत्यु अपरिहार्य हो गई हो, अथवा (ii) दुर्भिक्ष की स्थिति में जब नैतिक-मूल्यों का अपलाप किए बिना जीवन जीना संभव न हो, या भूख आदि के कारण मृत्यु अपरिहार्य बन गई हो, (iii) अत्यधिक वृद्धावस्था में जब मृत्यु अति सन्निकट दिखाई दे रही हो, अथवा बीमारी की स्थिति में जब मृत्यु निकट भविष्य में ही उपस्थित होने वाली हो, तब ही आध्यात्मिक-मूल्यों के संरक्षण के लिए देहासक्ति से ऊपर उठकर समाधिमरण ग्रहण किया जा सकता है। आत्महत्या जीवन से ऊबकर की जाती है, जबकि समाधिमरण चित्त की
त करक सहज भाव से, उपस्थित मृत्यु को स्वीकार करने के लिए किया जाता है। आत्महत्या में किसी-न-किसी प्रकार की कामना रही होती है, चाहे वह स्वर्ग की प्राप्ति की हो, या स्वर्ग में प्रिय के मिलन की अपेक्षा से हो, जबकि समाधिमरण निष्काम भाव से किया जाता है, उसमें किसी भी प्रकार की
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