Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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जिसके आधार पर यह माना जाता है कि गणस्थान-सिद्धान्त का विकास परवर्तीकालीन है और इसी अपेक्षा से उनके मत को आधार बनाते हुए हमने यह बताने का प्रयत्न भी किया है कि प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका से भगवतीआराधना किंचित् परवर्ती हो सकती है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय समाधिमरण की अवधारणा से सम्बन्धित है। इस अध्याय में हमने प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका के आधार पर समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा की है। इसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति समाधिमरण कर सकता है ? यदि समाधिमरण करने वाला साधक मुनिपद अथवा आचार्य-पद का धारक है, तो उसे सर्वप्रथम अपने गण या गच्छ का परित्याग करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सामान्यतया यह माना जाता है कि यदि सामान्य परिस्थिति में समाधिमरण का साधक स्वगण अथवा स्वगच्छ में समाधिमरण करता है, तो उसमें शिष्य अथवा सहवर्गी साधुओं के प्रति राग-भाव होने से कर्मों की पूर्ण विशुद्धि नहीं हो पाती है और समाधिमरण की साधना भी निर्विघ्न रूप से पूरी नहीं होती है, इसलिए यह माना गया है कि समाधिमरण के साधक को स्वगण या गच्छ का परित्याग करने के लिए परगण में योग्य आचार्य की और निर्यापकों की खोज करना चाहिए।
आलोच्य ग्रन्थ में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि समाधिमाण के साधक को क्रमशः ही आहार आदि का त्याग कराना चाहिए तथा निर्यापकों को इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि शारीरिक-दृष्टि से असमाधि उत्पन्न न हो, क्योंकि शारीरिक-असमाधि की दशा में साधना से विचलन हो सकता है। कषाय-त्याग और देह के कृशीकरण के लिए उसे किस प्रकार से प्रेरित करना चाहिए और क्या शिक्षाएँ देना चाहिए, इस बात की भी समीक्ष्य-ग्रन्थ में
f की गई है। इस प्रकार, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका के आधार पर समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया की विवेचना की गई है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का पंचम अध्याय समाधिमरण की साधना का ब्राह्मण या वैदिक-परम्परा में तथा बौद्ध-परम्परा में क्या स्थान रहा है, इसकी चर्चा करता है। इस अध्याय में हमने 'काणे' के 'धर्मशास्त्र के इतिहास, भाग 3' इतिहास के आधार पर बौद्ध-साहित्य के डॉ. रज्जनकुमार द्वारा उल्लेखित ग्रन्थों के आधार पर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि इन दोनों परम्पराओं में ऐच्छिक-मत्यवरण के क्या-क्या रूप रहे हैं और उनकी जैन-दर्शन की समाधिमरण की अवधारणा से किस रूप में भिन्नता या समानता रही है। जहाँ वैदिक-परम्परा में यह माना गया है कि विशिष्ट परिस्थिति में साधक जलप्रवेश, गिरिपतन आदि के माध्यम से मृत्यु का वरण कर सकता है और इसे धार्मिक-मरण माना गया है, वहीं जैन-परम्परा में इसे समाधिमरण की कोटि में नहीं माना जाता है। जैन-परम्परा यह मानती है कि साधक को किसी भी स्थिति में देहत्याग का उपक्रम नहीं करना चाहिए, मात्र सम्मुख उपस्थित मृत्यु को सहजभाव से समभावपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। यदि कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसमें किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उपसर्ग दिए जाने पर असाध्य रोग आदि के कारण देहत्याग की परिस्थिति आ जाती है, तो भी साधक को उसमें समभाव रखना चाहिए तथा उपसर्ग देने वाले या हत्या करने वाले के प्रति भी द्वेष आदि का भाव नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार, जहाँ विशेष परिस्थिति में वैदिक-परम्परा में मृत्यु-वरण को उचित माना गया है, वहाँ जैन-परम्परा स्वेच्छया-मृत्यु को आमंत्रित करना उचित नहीं मानती है। वह यह तो
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