Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
इसी प्रकार, वज्रस्वामी, पाँच सौ साधुओं के साथ प्राग्भार पर्वत पर भक्त - परिज्ञा धारण कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए । वासुदेव - पत्नी पद्मावती आदि मासिक-संलेखना कर सिद्ध हुईं। काली, सुकाली रानियाँ तप करते हुए अन्त में संलेखनापूर्वक सिद्धि को प्राप्त हुईं। इसी प्रकार चेटकसुता प्रभावती तथा सागरचन्द्र, वरुण, आनंद, कामदेवादि श्रावक पर्यन्ताराधना करके दिव्यगति को प्राप्त हुए ।
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इस प्रकार, इसमें प्रदेशी राजा, दृढ़सत्त्व सुश्रावक आदि के कथानक भी वर्णित हैं। कृष्ण की माता देवकी एवं बलदेव की रोहिणी भी द्वैपायन ऋषि द्वारा जलाई गई नगरी में भक्तपरित्याग करके समाधिमरण सहित दिव्यगति में गईं। समाधिमरण के प्रभाव से तामलि ईशानेन्द्र बना और बालतपस्वी पूरण भी चमरेन्द्र बना ।
प्राचीन आचार्य - विरचित इस आराधना - पताका में कुछ ऐसे पशुओं की कथाएँ भी निर्देशित हैं, जिन्होंने समाधिमरण से दिव्यगति को प्राप्त किया, जैसे- जिनदास श्रावक की कंबल - सबला गाय देहबल क्षीण होने पर अनशनविधि के द्वारा नागकुमारों में उत्पन्न हुई, इधर चण्डकौशिक सर्प चींटियों के द्वारा खाए जाते हुए भी अर्द्धमास की संलेखना कर सहस्त्रार देवलोक में गया ।
सहदेवा व्याघ्री ने अपने पूर्वभव को जानकर अनशन - प्रत्याख्यान किया और देवलोक में उत्पन्न हुई। आराधना - पताका में उल्लेखित उपर्युक्त कथाएं अर्द्धमागधी आगम - साहित्य और आगमिक - व्याख्याओं में भी उपलब्ध होती हैं। इसके अतिरिक्त, दिगम्बर - परम्परा के भगवती - आराधना में भी इनमें से अनेक कथाओं के निर्देश प्राप्त हैं, यद्यपि मूल ग्रन्थ में इन कथाओं की विस्तृत चर्चा हमें नहीं मिलती, मात्र नामों के संकेत हैं और यह बताया गया है कि उन्होंने किन परिस्थितियों में समाधिमरण ग्रहण किया था । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन - कथाओं के निर्देश की यह सांकेतिक-शैली मुख्य रूप से निर्युक्ति - साहित्य में मिलती है। निर्युक्ति की अपेक्षा भाष्य और चूर्णि तथा कुछ परवर्ती टीका-ग्रन्थों में ये कथाएँ विस्तार से मिलती हैं। हमने शोधप्रबन्ध के इस अध्याय में इन कथाओं को विस्तृत रूप मूल आगमों तथा अन्य उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर दिया है तथा कथा के अन्त में तुलनात्मक - दृष्टि से यह बताने का भी प्रयास किया कि ये कथाएँ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका के अतिरिक्त अन्यत्र कहाँ-कहाँ मिलती हैं ।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का सप्तम अध्याय मुख्य रूप से दो बातों पर विशेष बल देता है। प्रथम तो यह कि समाधिमरण आत्महत्या नहीं है और दूसरे, समाधिमरण की साधना को वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में क्या उपादेयता हो सकती है। इस अध्याय में सर्वप्रथम हमने समाधिमरण और आत्महत्या के अन्तर को स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि समाधिमरण किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या नहीं है, क्योंकि आत्महत्या में व्यक्ति के भाव संक्लेशपूर्वक होते हैं और वह आवेगों से ग्रस्त होकर देहपात करता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु की आकांक्षा नही होती, वरन् समुपस्थित मृत्यु का समभावपूर्वक बिना किसी विकलता के स्वागत किया जाता है। आत्महत्या में देहपात किया जाता है, जबकि समाधिमरण में देहपात हो जाता है। इसी प्रसंग में हमने यह भी स्पष्ट किया है कि समाधिमरण में मरने की आकांक्षा को भी अनुचित माना है । आत्महत्या की जाती है और समाधिमरण होता है, दोनों में जो बहुत अन्तर है, उसे हमने अनेक दृष्टियों से यहाँ विवेचित करने का प्रयत्न किया है। इसके पश्चात् हमने इसी अध्याय में यह भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी समाधिमरण की क्या प्रासंगिकता है ? इस चर्चा में हमने विशेष रूप से यह दिखाया
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