Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 217
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 203 नामक ब्राह्मण बना। क्रोध के स्वभाव के कारण सब मुझे चण्डकौशिक कहने लगे। उस जन्म में मेरे साथ और क्या-क्या घटा ? मेरा एक उपवन था। उसमें एक दिन पशु घुस आए। उन अबोले ने फल-पौधों को खा डाला। यह देखकर मेरे क्रोध की सीमा न रही। मैं कुल्हाड़ा उठाकर, उन्हें मारने दौड़ा, तभी रास्ते में रहे एक गड्ढे में मैं गिर पड़ा और मेरी मृत्यु हो गई। उसी क्रोध का परिणाम, आज मैं सर्पयोनि में हूँ। अपना अतीत देखकर क्रोध का परिणाम जानकर वह शान्त हो गया। उसने महावीर की साक्षी से अपने मन में फिर कभी क्रोध न करने का संकल्प धारण कर लिया। इसी के साथ, उसने यह भी संकल्प किया कि मैंने जिन लोगों को सताया. दःखी किया. वे यदि बदला लेंगे, तब मैं शान्त भाव से उनके द्वारा दिए कष्टों को सहन करुंगा, इसीलिए उसने अपना मुँह बांबी के विवर में डालकर शेष शरीर को बाहर रखकर शान्त हो बैठ गया। __ अगले दिन ग्वालों के मन में उत्सुकता जागी कि जो भिक्षु चण्डकौशिक के वन की ओर होकर चले गए थे, क्या बीती होगी उन पर? सब के सब शून्यवन की ओर चल पड़े। चलते-चलते वहीं पहुँच गए, जहाँ महावीर ध्यानस्थ थे। पास ही सर्प की बांबी भी थी। वे छिप-छिपकर देखने लगे। महावीर तो चुप खड़े हैं, परन्तु सर्प का पूरा शरीर महावीर के सामने है और मुहँ बिल में। महावीर चण्डकौशिक को सम्बोधि प्रदान कर अन्यत्र चले गए। ग्वाले ने ग्रामवासियों को विषधर सर्पराज के बदल जाने की तथा विष से अमृत बने सर्प की कथा का आँखों देखा हाल बताया। लोगों को मालूम हुआ कि चण्डकौशिक सर्प भगवान महावीर के सदुपदेश से बदल चुका है, अब न किसी को फुफकार मारकर सता रहा है, न आक्रोश रहा है। ग्रामवासियों ने जब यह संवाद सुना, तो सच्चे अर्थों में नागदेव मानकर दूध-दही, गोघृत इत्यादि पूजा-सामग्री अर्पित करने लगे। कोई उसे पत्थर मार-मारकर घायल कर रहे थे। पत्थर मारने वालों के प्रति और पूजा में विविध सामग्री अर्पित करने वालों के प्रति वह समभाव रखता, किसी पर क्रोध न करता। दूध घृतादि की गन्ध से वहाँ असंख्य वज्रमुखी चींटियाँ आ गईं। उन्होंने घायल सर्प को नोंच-नोंचकर खाना शुरु कर दिया। चण्डकौशिक को भीषण वेदना हो रही थी, परन्तु वह अब पूर्णरूप से शान्त हो चुका था। उसने अनशन ग्रहण कर लिया, मासार्द्ध के संलेखना-व्रत को धारण कर अन्त समय समाधिभाव से देह का विसर्जन कर सहस्रार नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। चण्डकौशिक का यह कथानक आवश्यक नियुक्ति (468), आवश्यक चूर्णि (भाग 1 पृ. 278-279), कल्पसूत्र की वृत्ति (पृ. 162) आदि में उपलब्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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