Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 220
________________ 206 साध्वी डॉ. प्रतिभा आकांक्षा या अपेक्षा नहीं रखी जाती। आकांक्षा को समाधिमरण का दोष माना गया है। आत्महत्या में देहासक्ति समाप्त नहीं होती, मात्र वर्तमान देह के त्याग का प्रयत्न होता है, जबकि समाधिमरण में देहासक्ति का त्याग ही प्रधान माना गया है। वह शरीर के प्रति निर्ममत्व की साधना से युक्त है। समाधिमरण का साधक यह मानता है कि मैंने इस शरीर का जीवन भर पोषण किया है, किन्तु फिर भी यह अब मेरे लिए उपयोगी नहीं रह गया, अतः वह केवल देह के ममत्व का त्याग करता है। आत्महत्या में मृत्यु की आकांक्षा होती है, जबकि समाधिमरण में किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं होती। समाधिमरण का साधक यह सोचता है कि शरीर स्वभावतः मरणधर्मा है, अतः यह रहे या जाए, मुझे अपनी आध्यात्मिक-साधना में इसे बाधक नहीं बनने देना है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि समाधिमरण और आत्महत्या - दोनों अलग-अलग हैं। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति यह मानता है कि जैसे उसे जीवन जीने का अधिकार है, उसी प्रकार उसे मरण का भी अधिकार प्राप्त है, जबकि समाधिमरण में मरने के अधिकार की बात नहीं है, वहाँ तो सामने उपस्थित मृत्यु का समभावपूर्वक स्वागत करना ही है। उसमें मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र उपस्थित मृत्यु का स्वागत होता है। इस प्रकार, हम देखते है कि समाधिमरण और आत्महत्या में बहुत अन्तर है। समाधिमरण में मरने की आकांक्षा नहीं, मात्र मृत्यु की उपस्थिति पर समभावपूर्वक शरीर के मभत्व से ऊपर उठा जाता है। वह मात्र देहासक्ति का त्याग है, उसमें मृत्यु की कामना नहीं है। इस दृष्टि से विचार करने पर हमें यह सोचना होगा कि यदि ममत्व के त्याग का अधिकार, अर्थात् किसी को 'अपना' और किसी को 'पराया' बनाने का अधिकार व्यक्ति के पास है, तो देहासक्ति के त्याग का अधिकार भी व्यक्ति के पास है। किसी वस्तु पर आसक्ति रखना या न रखना, यह यदि व्यक्ति के अधिकार में है, तो फिर हमें यह मानना होगा कि व्यक्ति को देहासक्ति के त्याग का भी अधिकार है। लगभग सभी भारतीय-धर्मदर्शनों ने आसक्ति के त्याग का निर्देश दिया है, अतः शरीर के प्रति आसक्ति का त्याग भी व्यक्ति का अपना स्वतन्त्र अधिकार है। दूसरे, यदि हम ऐसा मानते हैं कि व्यक्ति को नैतिक और आध्यात्मिक-मूल्यों का संरक्षण करना है, तो ऐसी स्थिति में हमें यह भी मानना होगा कि नैतिक और आध्यात्मिक-मूल्यों के संरक्षण में यदि देह का विसर्जन होता है, तो भी हमें उन मूल्यों का संरक्षण करना चाहिए। इस प्रकार, हमें यह मानना होगा कि यदि जीवन जीने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है तो फिर आध्यात्मिक-मूल्यों के संरक्षण के लिए जैविक-मूल्यों का त्याग या विसर्जन करना भी व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में है। समाधिमरण सतीप्रथा से भिन्न है सम्प्रति, अनेक लोगों ने यह प्रश्न भी उठाया है कि यदि सतीप्रथा और जौहर आत्महत्या या हत्या के ही प्रकारान्तर है; तो फिर हमें समाधिमरण को भी आत्महत्या का ही एक रूप मानना होगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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