Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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किन्तु क्या उद्देश्य की दृष्टि से भी ये सब समान हैं ? इनकी परीक्षा के लिए सिर्फ एक ही उपाय है। जिस देहत्याग की पृष्ठभूमि में उद्देश्य की पूर्ति प्रधान है और मरण प्रासंगिक है, मन शान्त प्रशान्त और समाधिपर्ण है. किसी तरह का आवेग, संवेग, उद्वेग, उत्तेजना आदि नहीं है, वह देहत्याग प्रशस्त है और इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है। वे पुनः कहते हैं कि आत्मदाह को भी उक्त कसौटी पर कसें : क्या उसके पीछे रागात्मक और द्वेषात्मक-संवेग जुड़ा हुआ नहीं है ? और यदि नहीं है, तो क्या आत्मदाह की अपेक्षा साधना का सौम्यमार्ग नहीं अपनाया जा सकता है? राजनीतिक-स्तर पर किए जाने वाले अनशन में क्या आत्मशोधन की भावना है ? यदि है, तो उसके उद्देश्य का विचार अपेक्षित है। जिस अनशन में प्रशस्त उद्देश्य और आत्मशुद्धि -दोनों होते हैं, उस
शस्त माना जा सकता है। यद्यपि भावकतावश व्यक्ति आत्मदाह या सतीप्रथा तथा धार्मिक-अनशन को एक धरातल पर रखता है, लेकिन इन दोनों को एक ही धरातल पर नहीं रखा जा सकता है।
__ आगे भी वे कहते हैं कि मृत्युवरण की स्वतन्त्रता के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति आवेश से रहित तथा मृत्युभय से मुक्त रहे। जब तक वह आवेशमुक्त और मृत्युभय से मुक्त नहीं रहता है, तब तक वह मृत्युवरण के स्वतन्त्र नहीं है।
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