Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
है, अतः मैं विषप्रयोग द्वारा प्रदेशी राजा को मारकर सूर्यकान्त कुमार को राज्यसिंहासन पर आसीन कर दूँ ।
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प्रदेशी राजा तो बेले-तेले की तपश्चर्या करने लगे। उनके पारणे के दिन उस सूर्यकान्ता महारानी ने विषमिश्रित प्राणघातक दूध (पेय) परोसा, तब उस विष मिले आहार को खाने से प्रदेशी राजा के शरीर में दुस्सह वेदना हुई, विषम पितज्वर से सारे शरीर में जलन होने लगी ।
तत्पश्चात्, प्रदेशी राजा सूर्यकान्ता देवी के इस षडयन्त्र को जानकर भी उसके प्रति मन में लेशमात्र भी द्वेष- रोष न करते हुए जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया, आकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की, स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन किया, फिर दर्भ का संथारा बिछाया, उस पर आसीन हुआ। आसीन होकर, उसने पूर्व दिशा की ओर मुख करके, पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर, आवर्त्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा- "अरिहन्तों, यावत्-सिद्धगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और मेरे धर्मोपदेशक केशीकुमार श्रमण को नमस्कार हो, पहले भी मैंने केशीकुमार श्रमण के समक्ष स्थूलप्राणातिपात यावत् स्थूलपरिग्रह का त्याग किया है, अब इस समय भी मैं उन्हीं भगवन्तों की साक्षी से जीवन पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन - शल्यरूप अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवनपर्यन्त के लिए अशनपान आदि रूप चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ ।
यद्यपि मुझे ये शरीर इष्ट- प्रिय रहा है, मैने हमेशा इस शरीर का ही ख्याल रखा कि कोई रोग न हो, परन्तु अब अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक के लिए इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ ।"
इस प्रकार के निश्चय के साथ आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक देहत्याग करके सौधर्मकल्प के सूर्याभविमान की उपपात -सभा में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ ।
चाणक्य का कथानक
आरधनापताका गाथा क्रमांक 824 पर चाणक्य का कथानक वर्णित है। पाटलीपुत्र नामक नगर में मौर्यवंशी बिन्दुसार नामक राजा राज्य करता था । उसका चाणक्य नामक एक उत्तम मन्त्री था। वह जैन-धर्म का अनुरागी था। वह जिनशासन की प्रभावना करता हुआ दिन व्यतीत करता था। एक दिन नन्दराजा का सुबन्ध मन्त्री पूर्व वैर के कारण चाणक्य के दोषों का निरीक्षण करके राजा से कहने लगा- "हे देव! चाणक्य ने आपकी माता को छुरी से पेट चीरकर मारा था, अतः आपका इससे बड़ा शत्रु और कौन हो सकता है ?" ऐसा सुनकर राजा ने धायमाता से पूछा, तो उसने भी यही उत्तर दिया, लेकिन मूल बात धायमाता ने गुप्त रखी। उसी समय चाणक्य को राजसभा में आते देखकर क्रोधातुर बना राजा उससे विमुख हो गया ।
शायद किसी ने राजा की मर्यादा का अपमान किया है, किन्तु इस तरह मुझसे विमुख होने का क्या कारण हो सकता है, ऐसा विचार कर चाणक्य घर चला आया । औत्पातिकी - बुद्धि से युक्त चाणक्य ने राजा के क्रोधित होने का कारण जान लिया। फिर उसने ऐसा विचार किया, मैं ऐसा कोई कार्य करूँ, जिससे उस व्यक्ति को योग्य शिक्षा प्राप्त हो और वह भोगों से विमुख हो । चाणक्य ने थोड़ा सुगन्धित चूर्ण तैयार कर उसे एक डिब्बे में डाल दिया, साथ ही एक भोज-पत्र पर यह लिखकर भी उस डिब्बे में रखा कि जो पुरुष इसे सूंघकर इन्द्रिय - विषयसुख का भोग करेगा, उसकी मृत्यु होगी, अथवा जो वस्त्र - आभूषण आदि पर या स्नान तथा श्रृंगार करके इसका विलेपन
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