Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 212
________________ 198 साध्वी डॉ. प्रतिभा गए। मैने तुम्हें जो कष्ट दिए, उसके लिए क्षमा करना। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।" कामदेव को प्रणाम कर देव अन्तर्ध्यान हो गया। इसी बीच, सवेरा हो गया और ध्यान पूरा हो गया कामदेव का। सूर्योदय के अनन्तर ही कामदेव ने शुभ संवाद सुना कि तरण-तारण भगवान महावीर आए हैं। प्रफुल्ल मन श्रावक श्रेष्ठ कामदेव महावीर की वन्दना करने पूर्णभद्र उपवन को गया। श्रमण-श्रमणियों के मध्य बैठे भगवान् की कामदेव ने वन्दना की और उनकी वाणी सुनने बैठ गया। भगवान् ने श्रमण श्रमणियों को सम्बोधित करते हुए कहा-"भव्यों! आत्मयोगी साधक श्रमण हो या श्रावक, पर उसकी साधना कामदेव जैसी अडिग होना चाहिए। तुम सब भी उसकी समता व धैर्य का अनुकरण करो। कामदेव के धैर्य की प्रशंसा करते हुए महावीर ने दैत्य द्वारा दिए गए कष्टों की कथा श्रमण-श्रमणियों को सुनाई तो वे भी रोमांचित हो गए। कामदेव श्रावक ने अपना शेष जीवन भी इसी तरह धर्म-धैर्य के साथ बिताया और फिर अनशनपूर्वक देहत्याग कर समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलोक प्राप्त किया, जहाँ वह सुखों के सागर पर तैरने लगा। प्रदेशी (पयासी) राजा का कथानक - आराधनापताका की गाथा क्रमांक 822 में प्रदेशी राजा द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने का निर्देश है। इस कथा का विस्तृत विवरण राजप्रश्नीयसूत्र में है। राजाप्रदेशी जीव और शरीर को एक मानता था। उसने अनेकों बार परीक्षण कर देखा। तस्करों और अपराधियों को सन्दूक में बन्द कर या उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर जीव को देखने का प्रयत्न किया कि कहीं आत्मा का दर्शन हो, परन्तु आत्मा अरूपी होने के कारण उसे दिखाई नहीं दी। जब आत्मा दिखाई नहीं दी, तो उसे अपना मत सही ज्ञात हुआ कि जीव और शरीर अभिन्न है, किन्तु उसके सभी तर्कों का पार्श्वपज्य केशी श्रमण ने इस प्रकार रूपकों के माध्यम से निरसन किया कि राजा प्रदेशी को आत्मा और शरीर पृथक्-पृथक् स्वीकार करना पड़े। स्वर्ग या नरक से जीव क्यों नहीं आकर कहते हैं कि मैंने प्रबल पुण्य की आराधना की जिसके फलस्वरूप में देव बना हूँ, अथवा मैंने पापकृत्य किए थे जिसके कारण मैं नरक में दारुण वेदनाओं को भोग रहा हूँ, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ कि तुम पाप से बचो और पुण्य उपार्जन की ओर लगो। यदि स्वर्ग और नरक होता, तो मेरे पिता, प्रपितामाह वहाँ गए होते. वे अवश्य ही आकर मझे चेतावनी देते। प्रत्यत्तर में केशी श्रमण ने कहा- "एक कामक व्यक्ति हो, जिसने तुम्हारी पत्नी के साथ दुराचार किया हो और तुमने उसे प्राणदण्ड की सजा दी हो, वह अपने पारिवारिक-जनों को सूचना देने के लिए जाना चाहे, तो क्या तुम उसे मुक्त करोगे ? नहीं, वैसे ही नरक से जीव मुक्त नहीं हो पाते, जो आकर तुम्हें सूचना दें और स्वर्ग के जीव इसलिए नहीं आते कि यहाँ पर गन्दगी है, कल्पना करो तुम अपने शरीर को स्वच्छ कर स्वच्छ द्रव्यों को लेकर देवालय की ओर जा रहे हो, उस समय शौचालय में बैठा हुआ कोई व्यक्ति तुम्हें वहाँ बुलाए, तो क्या तुम उस गन्दे स्थान में जाना पसन्द करोगे ? नहीं। वैसे ही देव भी यहाँ आना पसन्द नहीं करते हैं।" केशी स्वामी ने अनेक युक्तियों से प्रदेशी राजा की शंकाओं का समाधान किया। फलतः, वह धर्म के प्रति श्रद्धावान् बना। पहले राजा प्रदेशी का जीवन अत्यन्त उग्र था। उसके हाथ रक्त से सने हुए रहते थे पर केशी श्रमण के सान्निध्य ने उसके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। अब प्रदेशी राजा श्रमणोपासक श्रावक बन गया और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होता हुआ, धार्मिक आचार-विचारपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। राजा प्रदेशी को राज्य आदि के प्रति उदासीन देखकर सूर्यकान्ता रानी के मन में विचार उठा कि ये प्रदेशी राजा तो संसार से उदासीन हो चुका, अब मेरी इच्छा, वासना पूरी न हो पा रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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