Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 211
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन कामदेव श्रावक का कथानक श्रावक श्रेष्ठ कामदेव समता रस का ऐसा आदर्श था कि कल्पना मात्र में कंपा देने वाले कष्टों को उसने धैर्य की ढाल से निरस्त कर दिया। कामदेव अंगदेश की राजनगरी चम्पापुरी का रहने वाला धनी-मानी गाथापति था । अठारह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ हिरण्य थीं। कृषि उद्योग और गोपालक में भी वह समृद्ध था । उसके पास गायों के छह गोकुल थे और प्रत्येक गोब्रज में दस-दस हजार गायें थी। भगवान् महावीर विहार करते हुए चम्पापुरी के पूर्णभद्र उद्यान में पहुँचे । राजा - प्रजा का जनसमूह उनकी देशना सुनने उमड़ चला। भीड़-भाड़ को देख कामदेव ने अपने एक सेवक से पूछा - " आज यह भीड़ कहाँ जा रही है?" सेवक ने कहा- "आज भगवान् महावीर आए हैं, लोग उन्हीं के दर्शनों को जा रहे हैं।" कामदेव भी भगवान् महावीर के चरणों में वन्दन - नमस्कार करने पूर्णभद्र उपवन में पहुँचा । चाण्डाल और ब्राह्मण पास-पास बैठे हैं, चम्पा का राजा भी प्रजाजनों के साथ बैठा धर्म देशना सुन रहा है, कामदेव ने जिनवाणी का पान किया तो प्रफुल्लित हो गया । आत्मकल्याण के लिए उसने श्रमणोपासक श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किए। उनकी पत्नी भद्रा को भी मालूम हुआ, तो उसने भी ज्ञानगंगा में अवगाहन कर श्रावक - व्रत ग्रहण किए। दोनों धर्ममय जीवन जीने लगे। धर्ममय गृहस्थ जीवन जीते हुए कामदेव को कई वर्ष बीत गए। अब उसे संसार और सांसारिक वस्तुओं से पूर्ण विरक्ति होने पर पूर्ण निवृत्ति के आकांक्षी कामदेव ने आनन्द की तरह रातभर अपने शुभ संकल्पों को दोहराया और प्रातःकाल उठकर इष्ट मित्रो, परिजनों को प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। जब सब एकत्र हो गए, तो भोजनोपरान्त सबके सम्मुख अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहभार सौंपकर समस्त जिम्मेदारियों से मुक्त होकर पौषधशाला में जाकर उसने मुनि जैसे जीवन का शुभारम्भ कर दिया। श्रावक के द्वादश व्रतों के साथ कामदेव ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ धारण की। वह दर्भशय्या पर सोता था । ध्यान और कायोत्सर्ग में डूबा रहकर कामदेव आत्मयोग की उत्कृष्ट साधना करने लगा। एक दिन रात को वह कायोत्सर्ग में डूबा था । ध्यानावस्था में कामदेव देह की सुधि भी भूल गया। आधी रात के समय एक भयंकर अट्टहास हुआ। पौषधशाला भूचाल - सा आ गया। बड़े भयंकर शब्द के साथ एक दैत्य प्रकट हुआ। उसका रूप इतना भयंकर था कि देखते ही हृदय कांपता था, पर कामदेव ने दैत्य की ओर कोई ध्यान नहीं दिया । दैत्य ने खीझ के साथ श्रावक कामदेव से कहा "रे बकध्यानी! अपने सर्वनाश के लिए क्यों तूने कमर कस ली है ? मोक्ष और धर्म की मृगमरीचिका को छोड़, मेरी बात को सुन । छोड़ दे यह धर्मध्यान और भोगों का सुख ले।" 197 "अरे! तू सुनता नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। चुपचाप उठ जा । भूल जा महावीर को । उसके धर्म को छोड़ दे। यदि तूने मेरी बात नहीं मानी तो मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।" कामदेव तो ध्यान में डूबा था। ध्यानस्थ को कुछ भी सुनाई नहीं देता । कामदेव भी कुछ नहीं सुन रहा था । अपनी उपेक्षा पर दैत्य को बहुत क्रोध आया। उसने कामदेव की गर्दन पर तलवार रख दी और जहाँ-तहाँ प्रहार करके घायल कर दिया । रक्तप्रवाह से पौषधगृह की धरती लाल हो गई । कामदेव अडिग रहा। अब दैत्य ने हाथी का रूप बनाया और कामदेव को पैरों से रौंदने लगा। फिर उसने सर्प बनकर कामदेव का कई जगह काट लिया, पर वाह रे धैर्य! कामदेव ने उफ् तक नहीं किया । अब तो दैत्य भी पराजित हो गया। वस्तुतः वह देव था। दैत्य रूप त्यागकर वह सुदर्शन देव हो गया और बार-बार क्षमा माँगते हुए कामदेव से बोला- "श्रावकश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, तुम सफल हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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