Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 209
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन के प्रभाव से गाथापति आनन्द के पास अपार धन था । उसके पास चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं । इतना ही ब्याज में आता था और इतना ही व्यापार में लगा हुआ था। एक ब्रज में दस हजार गाएं होती हैं, इस अनुपात से आनन्द के पास चार ब्रज गोधन था । उसके पास पाँच सौ हल से जोतने योग्य भूमि थी और एक हजार शकट गाड़ियाँ सामान ढोने के लिए थीं । केवलज्ञान प्राप्ति के बाद प्रभु महावीर ग्रामानुग्राम विचरण करते-करते वाणिज्यग्राम पधारे और अपने श्रमण संघ के साथ उसके द्युतिपलाश नामक एक उद्यान में ठहरे। यह उद्यान वाणिज्यग्राम से ज्यादा दूर नहीं था, निकट ही था । वाणिज्यग्राम का राजा जितशत्रु था। 195 उसने जब सुना कि द्युतिपलाश उपवन में महावीर आए हैं तो वह राजपरिवार के साथ उनके दर्शनों को गया । गाँव-बस्ती के हजारों नर-नारी भगवान् की वाणी सुनने पहुँचे । गाथापति आनन्द ने जब यह सुना, तो वह भी भगवान् की देशना सुनने द्युतिपलाश उद्यान पहुँचा। तीन बार प्रदक्षिणा कर उसने भगवान् की विधिवत् वन्दना की और उनकी देशना सुनने समवशरण में बैठ गया। भगवान् की देशना सुन आनन्द के हृदय - कपाट खुल गए। उसने परिषदा के जाने के बाद भगवान् से निवेदन किया- "तरणतारण प्रभो ! चारित्र - पथ तो मेरे लिए बहुत कठिन है, फिर भी मुझे सीधे - सरल श्रावक - व्रत दीजिए, ताकि मैं घर में रहकर भी धर्म का पालन कर सकूं।" भगवान् ने आनन्द से कहा- "जैसा तुम्हें सुखकर लगे, वैसा ही करो।" भगवान् की स्वीकृति पाने के बाद आनन्द ने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिए। प्रसन्नता से झूमता आनन्द घर पहुँचा । पत्नी ने प्रसन्नता का कारण पूछा, तो आनन्द ने कहा"प्रिये ! पुण्योदया भागीरथी घर के द्वार पर आई है। मैं उसी में मज्जन करके आ रहा हूँ। तुम भी ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाकर आओ और श्रमणोपासिका बनकर अपने जीवन को धन्य बनाओ।” शिवनन्दा भी भगवान् की देशना सुनने गई । वह भी श्रावकव्रत लेकर लौटी। पति-पत्नी दोनों महावीर के भक्त बनकर निवृत्ति-मार्ग की साधना में प्रवृत्त हो गए। इस प्रकार, निवृत्तिमय जीवन जीते हुए आनन्द को चौदह वर्ष बीत गए। एक रात आनन्द ने विचार किया, कुछ भी हो गृहस्थ-जीवन में पूर्ण निवृत्ति नहीं आ सकती और पूर्ण निवृत्ति के बिना कल्याण संभव नहीं, पंच महाव्रत भी लेने कठिन हैं, अतः यदि पुत्र को सांसारिक जिम्मेदारियाँ साँप दूँ, तो निश्चितता से धर्म का पालन कर सकता हूँ। रात बीतने के बाद आनन्द ने अपने संकल्प को साकार रूप दिया । उसने प्रीतिभोज का आयोजन कर इष्ट मित्र, कुटुम्बीजनों को बुलाकर सबकी उपस्थिति में व्यापार का समस्त भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंपकर कहा - "अब तुम इस घर की जिम्मेदारी संभालो और मुझे धर्म की शरण ग्रहण करने दो।" आनन्द के आज्ञाकारी पुत्र ने गृहस्थी का दायित्व सम्भाल लिया । आनन्द अकेला ही कोल्लाक सन्निवेश पहुँचा और वहाँ बनी ज्ञातकुल की पौषधशाला में उसने धर्ममय जीवन का शुभारम्भ कर दिया। उसने घास का बिछौना बनाया और मुनियों जैसा वेश धारण कर मुनि जैसा ही जीवन बिताने लगा । तप, त्याग, प्रत्याख्यान तथा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ उसने धारण कर ली । तप के प्रभाव से आनन्द का शरीर कृश हो गया, पर धर्म-चेतना बहुत बढ़ गई। एक रात उसने संकल्प किया कि मुझे अब भक्तपान का त्याग करके संथारा - संलेखना के साथ जीवन बिताना चाहिए। दूसरे दिन से उसने अपना संकल्प साकार किया और कठोर तपोमय जीवन जीने लगा । शुभलेश्या, शुभभावना के परिणामस्वरूप आनन्द गाथापति को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । अवधिज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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