Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 214
________________ 200 करेगा, वह शीघ्र मर जाएगा। इसके बाद चाणक्य ने उस डिब्बे को एक सन्दूक में रखकर उसे कमरे में रखा और कमरे का दरवाजा बन्द कर उस पर बड़ा सा ताला लगा दिया। तत्पश्चात्, स्वजनों को जैन धर्म में योजित कर स्वयं ने इंगिनीमरण अर्थात् अनशन स्वीकार कर लिया। साध्वी डॉ. प्रतिभा इधर धायमाता राजा से कहने लगी- "हे राजन! तेरे पिता से भी अधिक पूजनीय चाणक्य मन्त्री का तूने पराभव क्यों किया ?" तब राजा द्वारा पुनः प्रश्न पूछने पर धायमाता ने कहा- "जब तू माँ के गर्भ में था, तब विषमिश्रित आहार का कौर खाते ही जहर से व्याकुल होकर तेरी माता मर गई, तब तुरन्त तुझे बचाने के लिए चाणक्य ने तेरी माता का पेट छुरी से चीरा और तुझे निकालकर बचाया। अगर उसने तुझे नहीं निकाला होता तो आज तू इस दुनियाँ में नहीं होता। उस समय तेरे मस्तक पर विषबिन्दु लगने से निशान हो गया था, इसी से तेरा नाम बिन्दुसार रखा गया ।" ऐसा सुनते ही राजा को अत्यन्त दुःख हुआ और वह तुरन्त आडम्बरसहित चाणक्य के पास गया। वहाँ उसने चाणक्य को गोबर के उपले (कण्डों) के ढेर के ऊपर बैठा देखा । राजा ने उसे आदरपूर्वक नमस्कार किया और अनेक बार क्षमायाचना की। फिर, राजा ने महात्मा चाणक्य को नगर में पधारने और राज्य को सम्भालने के लिए कहा। उस समय चाणक्य ने कहा- "मैने अनशन स्वीकार कर लिया है। अब मुझे किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं है ।" सुबन्धु की ही चालबाजी थी- ऐसा जानते हुए भी उसने राजा से कुछ नहीं कहा। सुबन्धु ने राजा से महात्मा की सेवा करने की आज्ञा मांगी। सुबन्धु राजा द्वारा आज्ञा प्राप्त कर धूप जलाकर उसके अंगारे उपले के ढेर पर डालने लगा, फिर भी चाणक्य शुद्धलेश्या में स्थित रहा। इससे वह अग्नि में जल गया और अन्त में मरकर वह देव बना। सुबन्धु मन्त्री उसके मरण का आनन्द मनाने लगा। क्रिसी दिन सुबन्धु मन्त्री राजा से आज्ञा प्राप्त कर चाणक्य के घर गया। वहाँ पर मजबूत ताले को देखकर 'सारा धन यहीं होगा- ऐसा विचारकर धन की आशा में उसने ताले को तोड़ा और पेटी बाहर निकाली। पेटी में से उसने उस डिब्बे को निकालकर खोला उसके अन्दर रखे सुगन्धितचूर्ण को उसने सूंघा और साथ में रखा हुआ भोजपत्र भी पढ़ा । मन्त्री उसका सम्यक् अर्थ समझ गया। उसका प्रभाव देखने के लिए उसने एक पुरुष पर उसका प्रयोग करने हेतु उसे चूर्ण सुंघाया। उस चूर्ण के सूंघने के पश्चात् उस पुरुष ने भोग किया, जिससे वह मर गया। सुबन्धु ने कहा- "अरे चाणक्य! स्वयं मरते हुए भी तूने मुझे भी मार डाला । इन्द्रिय विषयसुखों को भोगने की इच्छा होने पर भी वह मन्त्री उन भोगादि का त्याग कर रहने लगा, क्योंकि उसने भी उस चूर्ण को सूंघा था और यदि वह विषयभोग करता, तो वह स्वयं भी मर जाता। कहा भी गया है कि दूसरे के मस्तक पर छेदन करना अच्छा है, लेकिन चुगली करना अच्छा नहीं है। यह एक दोष भी उभयलोक को निष्फल करने वाला है, अतः आराधक को अनेक दोष से युक्त पैशन्य का मन से ही त्याग कर देना चाहिए। मिथ्या दोषारोपण करने वाला पिशुनवृत्तिवाला दूसरों के दोषों को देखता है। उसकी दृष्टि छिद्रान्वेषी होती है। गम्भीरता का अभाव और संकीर्ण मनःस्थिति होने के कारण ऐसे व्यक्ति में मैत्रीभाव एवं वाणी का विवेक नहीं होता है। विवेकशील व्यक्ति विचारपूर्वक वाणी का उपयोग करता है। किन्तु अज्ञ पुरुष किसी की बात को उसके परिणाम का विचार किए बिना ही सबके समक्ष प्रकाशित कर देता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में सुबन्धु और चाणक्य का कथानक उल्लेखित है। प्रस्तुतः कथानक हमें व्यवहारवृत्ति (10 / 592), निशीथचूर्णि (भाग - 2, पृ. 33) मरणसमाधि ( गाथा - 478), प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका (पृ. 72 ) एवं भगवती - आराधना (पृ. 805) आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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