Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 206
________________ 192 चारित्र-धर्म का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना से आत्मा को भावित कर, जिस प्रयोजन से संयम अंगीकार किया था, उस अर्थ को सिद्ध कर अन्तिम समय संलेखना - समाधि द्वारा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई । ' श्रेणिक की दसरानियों के कथानक आराधनापताका की गाथा क्रमांक 894 में काली सुकाली आदि के समाधिमरण का उल्लेख है। इसकी विस्तृत चर्चा अंतगढ़दसाओं के अष्टम वर्ग मे इस प्रकार वर्णित है । चम्पा नाम की नगरी थी, उसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था। वहाँ कोणिक राजा राज्य करता था । उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजा की रानी और महाराजा कोणिक की छोटी माता काली नाम की देवी थी । नन्दा देवी के समान काली रानी ने भी प्रभु महावीर के समीप दीक्षा ग्रहण करके सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया एवं बहुत से उपवास, बेले, तेले आदि तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। एक दिन वह काली आर्या अपनी गुरुणी चन्दनबालाजी के समीप आई और आकर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक इस प्रकार बोली- "हे आई! आपकी आज्ञा प्राप्त हो, तो मैं रत्नावलीतप को अंगीकृत करना चाहती हूँ ।" आर्या चन्दना ने कहा- "देवानुप्रिये! जैसे सुख हो, वैसे करो, प्रमाद मत करो।" तब, काली आर्या चन्दनाजी की आज्ञा पाकर रत्नावलीतप करती हुई विचरण करने लगी । इस रत्नावलीतप की चारों परिपाटियों को पूर्ण करने में उन्हें पाँच वर्ष, दो मास और अठाईस दिन लगे। इस प्रकार, जब उनका शरीर एकदम शुष्क हो गया, जैसे कोयलों से भरी गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, धूप में डालकर सुखाई हो, तो वह गाड़ी खड़-खड़ की आवाज करती हुई चलती और ठहरती है, उसी प्रकार काली आर्या जब उठती- बैठती, चलती तो उसकी हड्डियाँ भी खड़खड़ाहट की आवाज करती । उसका मांस सूख गया था, फिर भी वह तपस्तेज की लक्ष्मी अतीव शोभायमान हो रही थी। एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली आर्या के हृदय में यह विचार आया कि इस कठोर तप साधना द्वारा मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, तथापि जब तक मेरे इस शरीर में उत्थान, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम है, मन में श्रद्धा, धैर्य एवं वैराग्य है, तब तक मेरे लिए उचित है कि कल सूर्योदय होने के पश्चात् आर्या चंदना से पूछकर उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर संलेखना - व्रत ग्रहणकर, भक्तपान का त्याग करके मृत्यु के प्रति निष्काम होकर विचरण करूं । ऐसा सोचकर वह अगले दिन सूर्योदय होते ही जहाँ चंदना थी, वहाँ आई और आर्या चन्दना को वन्दना - नमस्कार कर इस प्रकार बोली- "हे आई! आपकी आज्ञा हो, तो मैं संलेखना करती हुई विचरना चाहती हूँ।" आर्या चन्दना ने कहा- "हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो, सत्कार्य में विलम्ब न करो।" तब आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना ग्रहण करके विचरने लगी, अन्त में साठ भक्त के अनशनपूर्वक सिद्ध हुई । — सिरिवासुदेवपत्ति जिणपासे गहियचरणपडिवत्ती । कयमासभत्तविरया सिद्धा पउमावई न सुया ? साध्वी डॉ. प्रतिभा Jain Education International आराधनापताका, गाथा - 813 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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