Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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श्रीकृष्ण पट्टमहिषियों के कथानक
प्राचीनकाल में द्वारिका नगरी थी, जहाँ वासुदेव श्रीकृष्ण राज्य करते थे। उनके पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जांबवती, सत्यभामा, रुक्मिणी ये आठ पट्ट रानियाँ थीं। अंतकृतसूत्र में इनका वर्णन आता है। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार वासुदेव कृष्ण अपने राजसेवकों द्वारा द्वारिका नगरी में यह उदघोषणा कराते हैं कि द्वारिका नगरी एक दिन द्वैपायन ऋषि द्वारा जला दी जाएगी, अतः जो भी व्यक्ति भगवान् अरिष्टनेमी के चरणों में दीक्षित होकर अपना कल्याण करना चाहे, उसे महाराज कृष्ण की आज्ञा है। इसके अतिरिक्त घोषणा में यह भी कहा गया कि जो भी व्यक्ति दीक्षित होकर अपना कल्याण करना चाहे, उसके दीक्षा-समारोह की सब व्यवस्था महाराज श्रीकृष्ण की ओर से होगी। इस घोषणा को सुनकर पद्मावती महारानी भी भगवान् अरिष्टनेमि के धर्मोपदेश को सुनकर सन्तुष्ट हुई, यावत्- वह अरिहन्त नेमिनाथ को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोली -भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। जैसा आप कहते हैं, वह वैसा ही है। आपका धर्मोपदेश यथार्थ है। हे भगवन्! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर आपके पास दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ।" प्रभु ने कहा- "जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। हे देवानुप्रिय! धर्म-कार्य में विलम्ब मत करो।" नेमिनाथ प्रभु के ऐसा कहने के बाद पद्मावती देवी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर द्वारिका नगरी में अपने प्रासाद में आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरी और जहाँ पर कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आकर अपने दोनों हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर मस्तक पर अंजलि कर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोली -
"देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा हो, तो मैं अरिहन्त नेमिनाथ के पास दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ।" कृष्ण ने कहा- "देवानुप्रिये! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो।' तब, पद्मावती देवी की दीक्षा की तैयारी की गई। उन्हें शिविका में बैठाकर द्वारिका नगरी के मध्य से होते हुए जिधर रैवतक पर्वत और सहासाम्रवन उद्यान था, उस ओर चले। वहाँ पहुँचकर पद्मावतीदेवी शिविका से उतरी। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि को वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले- "भगवन्! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है। यह मेरे लिए इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ है, फिर भी इसकी दीक्षा की उत्कट भावना को देखते हुए मैं इसे दीक्षा की आज्ञा प्रदान करता हूँ और मेरी प्रिय पत्नी को शिष्या के रूप में आपको समर्पित करता हूँ।
तब उस पद्मावती देवी ने ईशाण-कोण में जाकर स्वयं अपने शरीर पर धारण किए हुए सभी आभषण एवं अलंकार उतारे और स्वयं ही अपने केशो का पंचमष्टिक लो
लोच किया। फिर, भगवान् नेमिनाथ के पास वन्दन कर यूं बोली "हे भगवन्! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुःखरूपी अग्नि में जल रहा है, आप मुझे दीक्षा देकर इस भव-ताप से मुक्त करे। इसके बाद भगवान् नेमिनाथ ने पद्मावती देवी को प्रव्रज्या दी और यक्षिणी आर्या को शिष्या के रूप में प्रदान किया। तब, यक्षिणी आर्या ने आर्या पद्मावती को धर्मशिक्षा दी, फिर वह पद्मावती आर्या पंच समिति तीन गुप्ति का पालन करती हुई, इन्द्रियों का गोपन कर ब्रह्मचारिणी होकर विचरने लगी। इस तरह उस पद्मावती आर्या ने यक्षिणी आर्या से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत से उपवास, बेले, तेले, चोले, पचोले, मास-क्षमण और अर्द्धमासक्षमण आदि विविध तपस्या से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। इस तरह, पद्मावती आर्या ने पूरे बीस वर्ष तक
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