Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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आराधनापताका की गाथा क्रमांक 805 में आचार्य भद्रबाहु के चार शिष्यों के कथानक का निर्देश है।' इनका जन्म पाइण्ण गोत्रीय बाह्मण परिवार में हुआ था। इसके आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने इन्हें पौर्वात्य - ब्राह्मण माना है। इन्होंने 44 वर्ष की आयु में चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता आचार्य यशोभद्रस्वामी से प्रतिबोध पाकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य यशोभद्र के दो उत्तराधिकारी हुए थे। आचार्य संभूतविजय एवं आर्य भद्रबाहु । इनका जन्म वीर निर्वाण संवत् 94 में हुआ और ये वीर निर्वाण संवत् 148 में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । वीर निर्वाण सम्वत् 170 में इनका स्वर्गगमन हुआ । इनका मस्तक प्रशस्त और उन्नत तथा भुजाएँ जंघा तक आती थीं, इसलिए इन्हें भद्रबाहु कहा जाता था। इनका दूसरा नाम धर्मभद्र भी था । आचार्य भद्रबाहु एक बार धर्मदेशना देते हुए मगध जनपद की प्राचीन राजधानी राजगृही में पधारे। उनके उपदेश सुनकर अनादिकाल से मोहनिद्रा में निमग्न अनेक व्यक्ति अध्यात्ममार्ग में अग्रसर हुए। बाल्यकाल से साथ-साथ रहने वाले . (बालसखा) चार श्रेष्ठी पुत्र भी आचार्यश्री से भागवती दीक्षा ग्रहण करके साधु हो गए। वे चारों बड़े ही विनीत, मृदुभाषी, वैराग्य के रंग में पूर्ण रुप से रंगे हुए और सेवाभावी थे। उनके निष्कलंक चारित्र - पालन कों देखकर आचार्य ने उन्हें जिनकल्प धारण करने की अनुमति दे दी। अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए और लोगों को धर्मदेशना देते हुए वे चारों जिनकल्पी - श्रमण पुनः राजगृह के वैभार पर्वत पर आए। उस समय शीतकाल की शीतलहरें चल रही थी और उस क्षेत्र में अंग-प्रत्यंग ठिठुरा देने वाली ठण्ड पड़ रही थी। दिन के तीसरे प्रहर में वे चारों श्रमण नगर में भिक्षार्थ आए । भिक्षा ग्रहण करके लौटते समय चतुर्थ प्रहर सन्निकट आ पहुँचा। एक मुनि पर्वत की गुफा के द्वार पर, दूसरे उद्यान में, तीसरे उद्यान के बाहर और चौथे नगर के बाहर ही पहुँच पाये थे कि चतुर्थ प्रहर भी प्रारम्भ हो गया। 'दिन के तृतीय प्रहर में ही भिक्षाटन एवं गमनागमन करें, चतुर्थ प्रहर में कदापि नहीं, इस मुनि-मर्यादा का वे विशेष पालन करते थे। इस कठोर अभिग्रह के सच्चे परिपालक साधु उस समय जहाँ होते, वहीं ध्यानमग्न हो जाते थे ।
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वे भी वही ध्यानस्थ हो गए रात्रि की स्तब्धता के साथ-साथ शीत का प्रकोप बढ़ता गया । शीत - लहरियों से उनके अंग-अंग ठिठुरने लगे और धमनियों में रक्त जमने लगा । शीत- परीषह की मारणान्तिक–वेदना सहते हुए भी वे चारों कठोर साधक मुनि उज्ज्वल परिणामों से युक्त शुभध्यान ( शुक्लध्यान) में लीन हो गए। पर्वत के गुफाद्वार पर ठण्ड भयंकर पड़ रही थी, इसलिए वहाँ ध्यानस्थ मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में, उद्यान में ध्यान करने वाले द्वितीय प्रहर में, उद्यान के बाहर ध्यानमग्न तृतीय प्रहर में और नगर के बाहर ध्यानस्थ रात्रि के चतुर्थ प्रहर में देहत्याग कर देवलोक में उत्पन्न हुए ।
आचार्य भद्रबाहु के करकमलों द्वारा प्रव्रजित इन साधुओं ने किस परिस्थिति में समाधिमरण प्राप्त किया, यही इस कथा में वर्णित है। प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका की गाथा क्रमांक 813 में वासुदेव पत्नी पदमावती के समाधिमरण का उल्लेख है, इसकी विस्तृत कथा अंतगढ़दशा के पाँचवें वर्ग में इस प्रकार वर्णित है ।
1 सिरिभद्दबाहुसीसा चउरो रयणीए चउहिं जामेहिं । सीयं सहित्तु पत्ता दियलोर्य, किं तए न सुया ?
साध्वी डॉ. प्रतिभा
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आराधनापताका, गाथा - 805
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