Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 193
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 179 आराधनापताका में समाधिमरण के सम्बन्ध में गाथा क्रमांक 798 में अवंतिसुकुमाल की कथा दी गई है, जो हमारे रोम-रोम को कंपा देने वाली कथा है, वह इस प्रकार है। तपोमूर्ति आचार्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् भगवान् महावीर के दसवें पट्टधर दस पूर्वधर आचार्य सुहस्ती एक बार उज्जयिनी में पधारे और बाहर एक उद्यान में रुक गए तथा ठहरने के लिए स्थान की गवेषणा हेतु दो शिष्यों को नगर में भेजा। उज्जयिनी में भद्रा नाम की एक अत्यन्त समृद्धिशाली अपणोपासिका रहती थी। दोनों श्रमण भ्रमण करते हुए भद्रा के घर जा पहुंचे। श्रेष्ठ महिला ने दोनों साधओं को श्रद्धापूर्वक वन्दन किया और उनसे आने का प्रयोजन जानने के लिए पूछा- "मुनिवर ! मेरे योग्य सेवा बताकर मुझे कृतार्थ कीजिये। साधु बोले- "भद्रे! आचार्य सुहस्ति यहाँ पधारे हैं। हमें संघ के ठहरने हेतु उचित स्थान की आवश्यकता है।" श्रद्धावनत श्रेष्ठी महिला यह सुनते ही गद-गद् हो गई। उसने अति प्रसन्नता से कहा- "मेरे अहोभाग्य कि आचार्य श्री मेरा घर पवित्र करेंगे।" यह कहकर उसने पुनः कहा- "आप मेरे नवनिर्मित अतिथिगृह में पधारें।" आचार्यश्री भद्रा की विनती को मध्यनजर रखते हुए भद्रा के अतिथिगृह में आ गए। श्रमणोचित साधनाएँ उस शान्तैकान्त स्थल में सुचारू रूप से आरम्भ हो गई तथा एक पावन वातावरण निर्मित हो गया। अतिथिगृह से सटे भद्रा के भव्य भवन के एक ऊपरी तले पर अवन्ती सुकुमाल का आवास था। अपनी युवा सुन्दरी बत्तीस पत्नियों के संग उसका अनुरागमय जीवन चल रहा था। अभी तक तो अवन्ती सुकुमाल प्रेम, यौवन और सौन्दर्य के सिन्धु में ही निमग्न था, किन्तु जब से श्रमण संघ उसके घर में अतिथिगृह में आया था तब से उसके मन के तट को अध्यात्म की लहरियाँ भी आकर स्पर्श करने लगी थीं। उपदेशों की वाणी उसके कानों में गुंजायमान होने लगी। आचार्यश्री के प्रवचनों पर वह ध्यान देने लगा। उसका चित्त एक नवीन मोड़ पर आ गया था। उसे अनुभव होने लगा कि आचार्यश्री तो नलिनीगुल्म-विमान का वर्णन कर रहे हैं। जिन सुखों का विवेचन किया जा रहा है, वह तो स्वयं उनका प्रत्यक्ष उपभोग कर चुका है। अवन्ती सुकुमाल को तो आचार्यश्री के इस पाठ में बड़ा ही आनन्द आ रहा था और इसके अतिरेक में वह झूम उठा। पाठ समापन होते ही सुकुमाल तो उठ बैठा और सोपान-श्रेणियाँ पार करता हुआ नीचे आकर सीधा आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित हुआ। वन्दन-नमन कर उसने सादर निवेदन किया- "आचार्यश्री! आपश्री के उर्ध्व स्वर में किए गए नलिनीगुल्म-विमान-विषयक पाठ का श्रवण किया और मेरा तो जैसे आन्तरिक तृतीय नेत्र ही खुल गया। मुझे जातिस्मरण-ज्ञान हो गया प्रभो! पाठ में वर्णित सभी दुर्लभ सुखों की प्राप्ति मैं नलिनीगुल्म-विमान में स्वयं कर चुका हूँ, यह आभास मुझे अभी-अभी पाठ को सुनते-सुनते हो गया। गुरूवर्य ! मैं अपने इस भव में उसी विमान से अवतरित हुआ हूँ," अतः गुरुदेव! अब मैं पुनः उन्हीं सुखों को प्राप्त करना चाहता हूँ। आपश्री के आश्रय के अतिरिक्त मेरे लिए कोई अन्य ठौर नहीं।" सुकुमाल ने आचार्यश्री के पावन श्रीचरणों में मस्तक टिका दिया। आचार्यश्री ने कहा "वत्स! कल्याण हो तुम्हारा। नलिनीगुल्म-विमान में जाने के लिए तो तुम्हें संयम ग्रहण करना होगा।" अवंती सुकुमाल बोला-"मुझे स्वीकार है, प्रभो! स्वीकार है, मैं संयम ग्रहण करूँगा।" आचार्यश्री ने उसकी ओर देखा-वह नाम से ही नहीं शरीर से भी अत्यन्त सकमार था। उन्होंने श्रमण-जीवन के कष्ट बताते हुए कहा- "प्रिय! तुम अत्यन्त सुकुमार हो और श्रमणाचार तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है।" अवन्ती सुकुमाल बोला- "स्वामी! मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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