Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 197
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 183 पराजित किया, द्रौपदी का उद्धार हुआ। यथासमय द्रौपदी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पाण्डुसेन जब समर्थ कलाकुशल और राज्य का संचालन करने योग्य हो गया, तब पाण्डव उसे सिंहासनासीन करके दीक्षित हो गए। तत्पश्चात्, उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अणगारों ने आचार्य से समाधिमरण की साधना की अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके वे आचार्य के पास से निकले। निकलकर निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए, यावत् जहाँ हस्तीकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर, हस्तीकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे। तत्पश्चात्, युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अणगारों ने मासखमण के पारणे के दिन पहले पहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया। शेष वर्णन गौतम स्वामी के समान जानना चाहिए। विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अणगार से भिक्षा की अनुमति माँगी। फिर वे भिक्षा के लिए जब पर्यटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सुना कि तीर्थकर अरिष्टनेमि गिरिनार पर्वत के शिखर पर एक मास का निर्जल उपवास करके पाँच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गए हैं, यावसिद्ध होकर समस्त दुःखों से रहित हो गए हैं, तब युधिष्ठिर के सिवाय, ये चारों अणगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सुनकर हस्तीकल्प नगर से बाहर निकले। बाहर निकलकर, जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अणगार थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर, आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की। प्रत्युपेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया, फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की। आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया। दिखलाकर, युधिष्ठिर अणगार से कहा"हे देवानुप्रिय! हमआपकी अनुमति लेकर भिक्षा के लिए नगर में गए थे। वहाँ हमने सुना है कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि कालधर्म को प्राप्त हुए है, अतः हे देवानुप्रिय! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान के निर्वाण का वतान्त सनने से पहले ग्रहण किए हए आहार-पानी को परठ क शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हों तथा संलेखना ग्रहण करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरते रहें।" इस प्रकार कहकर सबने परस्पर इस अर्थ (विचार) को अंगीकर किया। आहार-पानी एक निर्वध स्थान देखकर परठ दिया। परठ कर, जहाँ शत्रुजय पर्वत था, वहाँ गए और शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर, यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे। __तत्पश्चात्, उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अणगारों ने दो मास की संलेखना से कर्मों का नाश करके, जिस प्रयोजन के लिए संयम को अंगीकार किया था, उस प्रयोजन को सिद्ध कियां अर्थात् केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त कर वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो गए।' __ आराधनापताका की गाथा क्रमांक 801 में धन्ना, शालिभद्र की कथा का निर्देश है, जो विस्तार से आगम-ग्रन्थों में उल्लेखित है। राजगृह के श्रेष्ठी गोभद्र का पुत्र था शालिभद्र। उसकी माता थी सेठानी भद्रा। गोभद्र मर गया और मरकर देवलोक में देव बना। वह अपने पुत्र को धन, वस्त्र, रत्नादि की बत्तीस पेटियाँ नित्य भेजा करता था। अप्सरा-सी सुन्दर बत्तीस पत्नियाँ थी शालिभद्र के। उसका ऐश्वर्य और वैभव ऐसा अद्वितीय था कि राजगृह के राजा स्वयं उसकी हवेली पर उसका वैभव देखने गए थे। एक रे-धीरे ' किं न सुया ते सुविहिय। जुहिट्ठिलाई दुमाससंलेहा। सेत्तुंजे पंडुसुया सिद्धिगया पाचवोगया।। - आराधनापताका, गाथा - 800 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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