Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिमा
छुटकारा पाने के लिए जिनभाषित सर्वविरत–चारित्र को अंगीकार करना ही मेरे लिए उत्तम है। महान् विभूतियों के संकल्प अति सुदृढ़ होते हैं। राग-द्वेष की आंधियों में फंसते नहीं हैं। चारित्र के विचार आते ही उन्होने अपने पुत्र के हाथों में राज्य की धुरा संभलाई और आचार्य विनयधर के पास दीक्षित हो गए।
___मंत्रीगण, राज्य के विशिष्ट पदाधिकारी एवं परिवार के सदस्यगण महीने भर तक राजर्षि के पीछे-पीछे फिरते रहे। वापस लौटने की प्रतिक्षा करते रहे, परन्तु दृढ़-प्रतिज्ञ सनत्कुमार राजर्षि विचलित नहीं हुए। सभी हारकर लौट गए। तब राजर्षि अप्रतिबद्ध होकर विहार करने लगे, साथ ही, उग्र तपस्या भी शुरू कर दी। तपस्या के पारणे के दिन तच्छ और नीरस आहार ही ग्रहण करते. जिससे आत्मा तो पुष्ट होती रही, परन्तु शरीर को अनेक प्रकार की महाव्याधियों ने घेर लिया। उग्र तपस्या से उन्हें अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुईं। उनमें आमीषधि, शक्रदौषधि, मूत्रौषधि आदि प्रमुख थीं। वे बहुत वर्षों तक महारोगों को समभाव से सहन करते रहे, परन्तु इलाज नहीं करवाया और न स्वयं के लिए अपनी लब्धियों का ही उपयोग किया। शकेन्द्र ने देवों की सभा में राजर्षि सनत्कुमार की सहनशीलता की भरपूर प्रशंसा की। विघ्नसंतोषी प्रत्येक जगह हर समय उपस्थित रहते ही हैं।
यहाँ भी दो देव राजर्षि की परीक्षा होने वैद्य का वेश बनाकर उपस्थित हो गए। वन्दन नमस्कार करके कहने लगे- 'अहो तपस्वी भगवन्! हम इस देश के मशहूर वैद्य है। आपके रोगी होने की बात जानकर हम चिकित्सा करने को उपस्थित हए हैं, हमें चिकित्सा करने का अवसर प्रदान कर अनुग्रहीत करें। इस तरह अनुनय-विनय करते देखकर महात्मा ने पूछा- "आप आत्म-चिकित्सक है या शरीर-चिकित्सक ?" वैद्यों ने कहा-"हम शरीर-रोग के विशेषज्ञ हैं, आत्म-रोग के नहीं।" तब महर्षि सनत्कुमार ने कनिष्ठा अंगुली पर अमि (यूंक) लंगाकर थोड़ा रगड़ कर कहा- "इस शरीर रोग की चिकित्सा तो मैं भी इस तरह कर सकता हूँ, परन्तु मुझे आत्म-रोग की चिकित्सा कराना है।" वैद्यरूपी देवों ने देखा कि जहाँ पर महर्षि ने थूक लगाकर रगड़ा था, वह अंगुली स्वर्ण सी दमक रही है। देवों ने कहा-"आत्मा के रोगों की चिकित्सा करने में हम समर्थ नहीं हैं। वह तो आप जैसे त्यागी महात्मा ही कर सकते हैं।" देवों ने अपना असली रूप प्रकट कर बारम्बार क्षमायाचना की और वन्दना करके स्व-स्थान को लौट गए। इधर, महात्मा सनत्कुमार आत्मा को अष्टकर्मरूपी रोगों से मुक्त करने में संलग्न हो गए। सात सौ वर्षों तक इस तरह शारीरिक वेदना को समभाव से सहन करते हुए उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। जीवन के अन्तिम समय में समभाव साधनापूर्वक मृत्यु का वरण करके तीन लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर सनत्कुमार देवलोक में महर्दिक देव बने।'
यह कथा त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व 4 और सर्ग 7 के अतिरिक्त प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका की गाथा क्रमांक 797 में भी मिलती है।
" सीहोरसियं रूहिउं चउदिसि चउपक्खसंलिहियदेहो। सोदुवसग्गो जाओ सोहम्मिदो तुरियचक्की।। - आराधनापताका, गाथा - 797
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