Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
पीलते-पीलते ही अन्तिम क्षणों में 'अरिहन्ते शरणं पवज्जामि, सिद्धे शरणं पवज्जामि' कहते हुए केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया।'
प्राचीनाचार्यकृत आराधनापताका के आराधक मनुष्यों और पशुओं के कुछ दृष्टान्त निरूपित किए गए है, इनमें यह बताया गया है कि जो साधक अपनी आत्मा को समताभाव से भावित करता हुआ अपने पापों की आलोचना कर समभाव से देहत्याग करता है उसकी आराधना विशुद्ध होती है इस सम्बन्ध में आराधनापताका की गाथा क्रमांक 795 में एवं अन्तकृत्दशा नामक अंग-आगम में गजसुखमाल मुनि द्वारा अग्नि के दारुण उपसर्ग को सहन करने का बड़ा ही रोमांचक वर्णन मिलता है।
आराधनापताका में तो मात्र उनके नाम का निर्देश है, किन्तु अंतकृत्-दशा में सम्पूर्ण कथा है, जो निम्न है।
__ द्वारिका नगरी में वासुदेव श्रीकृष्ण रहते थे। उनका गजसुखमाल नामक एक छोटा भाई था। इच्छा न होने पर उसने माता देवकी और वासुदेव श्रीकृष्ण के अति आग्रह से सोमशर्मा नामक ब्राह्मण की पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव स्वीकार किया, किन्तु उसी दिन उसने भगवान् नेमिनाथ के पास जाकर धर्मश्रवण किया तथा सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा संसार का स्वरूप जानकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और रूप-लावण्य से युक्त अल्पवय होने पर भी वह चरमशरीरी महासत्त्वशाली गजसुखमाल मुनि बन गया। उसी दिन वह गजसुखमाल मुनि कायोत्सर्ग में स्थिर हो गए।
काष्ठ आदि संग्रह हेतु सोमशर्मा ब्राह्मण भी उधर आया और अपने भावी जामात को मुनि-रूप में देखकर उसका पूर्वभव का वैर जाग्रत हो गया और मुनि को देखकर वह कहने लगा कि यह वही है, जिसने मेरी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर उसका त्याग किया है। ऐसा विचार आते ही वह क्रोध में बेकाब हो गया। मनि को मारने की भावना से उसने मिट्टी की पाल बांधी और पाल के अन्दर जलते हुए अंगारे उनके सिर पर डाल दिए। इस कारण, मुनि का मस्तक अग्नि से जलने लगा। उस तीव्र वेदना की अवस्था में भी गजसुखमाल शुभध्यान में स्थिर रहे। क्षमाभाव को चित्त में धारण कर वे गजसुखमालमुनि अन्तकृत-केवली बनकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। इस प्रकार वे क्षमा के सागर गजसुखमाल अपनी अन्तिम आराधना में पूर्ण रूप से सफल हुए।
आराधनापताका में समाधिमरण के सम्बन्ध में गाथा क्रमांक 797 में सनत्कुमार की कथा दी गई है, वह इस प्रकार है
'पंचसया एगूणा खंदगसोसा दिएण पावेण । जंते पीलिज्जंता पडिवन्ना उत्तिम अहूँ।।
आराधनापताका - गाथा -794 2 भयवं गयसुकुमालो खाइशंगारपूरियकवालो। सोमिलदिएण वियणं अहियासिंतो सिवं पत्तो। आराधनापताका - गाथा - 795
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