Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 189
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन प्रधान को यह समाचार मिल गए कि स्कन्दकाचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ उनके नगर में आ रहे हैं, अतः स्कन्दक से बदला लेने के लिए पालक ने षडयंत्र की रचना की व जिस उद्यान में मुनियों को ठहराना था, उसकी जमीन खुदवाकर अनेक प्रकार के हथियार गड़वा दिए। जब स्कन्दकाचार्य अपने शिष्यों के साथ कुम्भकारकंटक नगर पधारे, तो पालक सबसे आगे रहकर अत्यन्त विनयभावपूर्वक समर्पण के साथ आचार्यश्री का स्वागत करके नगर में ले आए और आग्रह करके उसी उद्यान में ठहरने की विनती की। 175 यहाँ 'नमन - नमन में फेर है, बहुत नमे नादान, दुर्जन तो दुगना नमे, चीता चोर, कमान ।' - वाली कहावत चरितार्थ हुई । आचार्यश्री ने पालक की आँखो में द्वेष की झलक देख ली । फिर भी 'भवितव्यता बलियसी मानकर निष्कपट-भाव से उसकी विनती को मानकर उद्यान में ठहर गए। राजा दण्डक आदि सभी स्कन्दकाचार्य के दर्शनार्थ पहुँचे। रानी पुरन्दरयशा अपने भाई को देखकर बहुत खुश हो रही थी । आचार्यश्री ने धर्मदेशना दी। देशना सुनकर सभी नगर में लौट गए। इधर रात्रि मे मंत्रकक्ष में पालक ने राजा दण्डक को समझाया कि यह स्कन्दकुमार जो आपका साला है, वह आपके राज्य पर अधिकार करने के लिए ही अपने साथ साधु-वेश में पाँच सौ योद्धाओं को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित करके लाया है, उसमें एक - एक योद्धा एक - एक हजार सैनिक के बराबर है। पहले तो राजा ने यह बात नहीं मानी, परन्तु बहुत आग्रह करने पर प्रत्यक्ष प्रमाण बताने की मांग पर राजा मान गए। दूसरे ही दिन पालक कुछ विश्वस्त मजदूरों को साथ लेकर राजा के साथ उद्यान में आया और मुनियों को गालियाँ देता हुआ उद्यान की जमीन को खुदवाने लगा। पहले से गाड़े हुए शस्त्र खोदकर निकाले और राजा को बताए तो शस्त्रों को देखकर राजा ने क्रोधावेश में आकर पालक से कहा- 'इस देश के मंत्री के नाते और इस देश की भलाई और सुरक्षा के लिए तुम इन्हें जो भी दण्ड देना चाहो, दे सकते हो, तुम्हें किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं।' इतना कहकर राजा तो महल में चले गए । दुष्ट पालक को बदला लेने का अच्छा अवसर मिल गया, वह बहुत खुश हुआ। उसने विचार किया "मैं इस तरह से इन्हें दण्ड दूँ कि जिससे इन्हें असह्य कष्ट हो और एक-एक को घाणी में गन्ने की तरह पीलवाऊँ ।" उसने उद्यान की तरफ नागरिकों को जाने की निषेधाज्ञा की नगर में घोषणा करवा दी। फिर उसने मनुष्यों को पीलने वाला महायंत्र (कोल्हू ) तैयार करवाकर मंगवाया और राजा दण्डक के नाम से स्कंदकाचार्य को सजा सुनाई। स्कंदकाचार्य सारी परिस्थिति देखकर सब कुछ समझ गए । वे पीलने के लिए ले जाते हुए एक-एक शिष्य को भेद-विज्ञान का उपदेश देकर आलोचना करवाते, यथोचित प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते, उनके मन में समाधिभाव उत्पन्न करवाते, फलस्वरूप, पीने के लिए कोल्हू पर चढ़ते समय प्रत्येक शिष्य के मन में यही भाव उत्पन्न कर दिया कि 'इसमें पीलने वाले का कोई दोष नहीं है, यह सारा दोष मेरे पूर्व कर्मों का है । कम्माण न मोक्ख अस्थि' अर्थात् – किए हुए को भोगे बिना मोक्ष नहीं है। इस प्रकार चिन्तन करते-करते पालक आदि के प्रति द्वेषभाव न रखते हुए उन मुनियों ने शुक्लध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को जलाकर क्षपक श्रेणी के साथ कोल्हू पर आरूढ़ होकर पालक द्वारा घाणी में 'कडाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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