Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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वक्कलि कुलपुत्र तथा भिक्षु छान्न द्वारा की गई आत्महत्या का समर्थन बुद्ध ने किया था और उन्हें निर्दोष कहकर दोनों ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाला बताया था। जापानी बौद्धों में तो आज भी 'हरीकरी' की प्रथा मृत्यु-वरण की सूचक है। फिर भी जैन और बौद्ध परम्पराओं में मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर भी हैं। प्रथम तो यह है कि जैन- परम्परा के विपरीत बौद्ध - परम्परा में शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्यु - वरण कर लिया जाता है। जैन आचार्यों ने शस्त्रवध आदि के द्वारा तात्कालिक मृत्यु-वरण का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की सम्भावना प्रतीत हुई । यदि मरणाकांक्षा नहीं है, तो फिर मरण के लिए इतनी आतुरता क्यों ? इस प्रकार, जहाँ बौद्ध परम्परा शस्त्र द्वारा की गई आत्महत्या का समर्थन करती है, वहाँ जैन - परम्परा उसे अस्वीकार करती है। इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के अधिक निकट है।
बौद्ध-परम्परा में आत्महत्या या इच्छितमरण को स्वीकार नहीं किया गया है, लेकिन कुछ विशेष कारण उपस्थित होने पर मृत्युवरण की आज्ञा प्रदान की गई है और इसकी प्रशंसा भी की गई है। जातक आदि बौद्ध-ग्रन्थों में इच्छितमरण करने वालों पर प्रकाश डाला गया है।
साध्वी डॉ. प्रतिभा
प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय में मृत्युवरण के कई उदाहरण देखने में आए हैं। यद्यपि इसमें उद्धृत मृत्युवरण, निर्वाण या कैवल्य प्राप्ति की अपेक्षा मन में आए हुए तूफान एवं मोह का उपशमन करने के लिए किया गया है ऐसा जान पड़ता है। इस ग्रन्थ के अनुसार एक युवक ने अपनी पत्नी की हत्या इसलिए कर दी, क्योंकि उसे अपने मन में यह भय था कि वह अगले जन्म में उसकी पत्नी नहीं बन पाएगी। पत्नी की हत्या के बाद उसने स्वयं भी मृत्यु वरण कर लिया । यह स्पष्ट है कि मृत्युवरण करने के पहले उनके मन में बिछुडने का भय था तथा एक भावना मन में थी कि हो सकता है कि इस प्रकार मृत्युवरण करने से अगले जन्म में वे दोनों पुनः पति - पत्नी के रूप में मिल जाएं।
यह ऐच्छिक मृत्युवरण मन में आए आवेग को शान्त करने के लिए ही लिया गया था, ऐसा कहा जा सकता है, फिर भी इसे समाधिमरण नहीं कहा जा सकता ।
दीर्घनिकाय में लिखा है कि पायासी स्त्री विवाह पश्चात् गर्भवती हुई। गर्भावस्था के अनन्तर वह हर समय इस बात को जानने के लिए बेचैन रहती थी कि उसके गर्भ में आया हुआ जीव लड़का है या लड़की। बहुत समय तक अपने मन को संयमित न रख सकने के कारण, अपनी जिज्ञासा व बेचैनी को उपशान्त करने के लिए एक तेज धार वाले हथियार से उसने अपने पेट को चीर डाला, किन्तु इसे भी समाधिमरण की कोटि में मान्य नहीं किया जा सकता है। पेट चीरने के फलस्वरूप पायासी व उसके गर्भ में पल रहे शिशु की भी मृत्यु हो गई । यद्यपि आत्महत्या का यह उदाहरण किसी भी तरह से समाधिमरण के समकक्ष नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें मात्र जिज्ञासा शान्ति के लिए ही ऐसा कृत्य किया गया था।
1 मज्झिमनिकाय II 109
2 दीर्घनिकाय II, 246
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