Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 181
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 167 शुद्धोदन राजा का राजपुरोहित सप्पदस था। वह हमेशा कामाग्नि में जलता रहता था। निरन्तर प्रयास के बावजूद भी उसका मन बेचैन ही बना रहा, अन्त में जब शान्ति नही मिली तो उसने मृत्युवरण का निश्चय किया। उसी समय, उसका मन समाधिस्थ हो गया, उसके पश्चात् उसने अर्हत् पद प्राप्त किया, बाद में सप्पदस ने अपनी व्यथा को इस प्रकार उद्घाटित किया, - मृत्युवरण हेतु मैं शस्त्र के रूप में उस्तरा लेकर पलंग पर आसीन हो गया। अपनी धमनी काटने के लिए गले पर उस्तरा रखा ही था कि मेरे चित्त में एक विवेकपूर्ण चिन्तन चला और मैं चित्तमुक्त हुआ।' सप्पदस द्वारा किया गया यह मृत्युवरण का निर्णय समाधिमरण से तुलनीय है, क्योंकि सर्वप्रथम उसने मृत्युवरण का जो निश्चय किया था, वह काम-भावना से मुक्त होने के लिए किया था दूसरे ऐसे मृत्युवरण के निश्चय से अर्हतावस्था की प्राप्ति भी संभव नहीं होती है। __उत्तर सारिपुत्र के शिष्य थे। सारिपुत्र को अस्वस्थ जानकर उसके उपचार हेतु वैद्य को बुलाने के लिए उत्तर शहर को जा रहा था। रास्ते में किसी सरोवर के निकट अपना कमण्डलु रखकर वह स्नान करने चला गया। इसी बीच किसी चोर ने उत्तर के कमण्डल में चोरी का माल रख दिया। राज-रक्षकों ने उत्तर को पकड़ लिया। राजा की ओर से उसे मृत्युदण्ड का आदेश मिला। जब वह फांसी के स्थल पर ले जाया जा रहा था, तो उसका मन उदास व खिन्न था, लेकिन फांसी के फंदे पर झूलते वक्त उसे दिव्यज्ञान प्रकट हुआ और उसकी खिन्नता प्रसन्नता में बदल गई, उसने हंसते-हंसते फांसी के फन्दे पर झूलकर मृत्यु का वरण किया तथा अपने मन में उठे विचारों को इस प्रकार प्रकट किया - 'कुछ क्षण पहले मैं मृत्यु से घबरा रहा था, लेकिन अब मैंने इसके दुष्परिणाम को जान लिया है, अतः संसार में रहने की कामना भी समाप्त हो गई है। प्रथम अवस्था में उत्तर को यह जानकर दुःख हो रहा था कि मैंने पाप कार्य नहीं किए तो भी मुझे सजा मिल रही है. मैं बिना कारण ही मत्य का ग्रास बन रहा हूँ. लेकिन अगले ही क्षण जब ज्ञान का प्रकाश हो गया तो उसे संसार के मिथ्यात्व का बोध हो गया तथा उसे जन्म और मरण-दोनों ही अवस्थाएं समान प्रतीत होने लगीं, अर्थात् उत्तर समभाव में विचरण करने लगा। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रसन्न चित्त से मन में दुर्भाव न लाते हुए उत्तर ने मृत्यु का जो वरण किया, वह समाधिमरण के तुल्य है। उसके फांसी के फन्दे पर झूलने का कारण स्वेच्छा न होकर राजाज्ञा थी। ___महायान बौद्ध धर्म की शाखा है। इसमें भी स्वेच्छया-मरण के अनेकों उदाहरण दृष्टव्य हैं। भावी शाक्यमुनि ने पूर्व भवों में मृत्युवरण किया था। मृत्युवरण के लिए उन्होंने अपना शरीर भूखी शेरनी को समर्पित किया था। वहीं उसने भेषराज के भव में आग में जलकर मृत्युवरण किया था। मृत्युवरण की ये दोनों स्थितियाँ समाधिमरण के समकक्ष प्रतीत नहीं होती हैं, क्योंकि पहली अवस्था में परोपकार के वशीभूत होकर भविष्य के शाक्यमुनि ने अपना शरीर भूखी शेरनी को खिला दिया था, अत: यह समाधिमरण से भिन्न है। दूसरी अवस्था में भेषराज आग में जलकर मरता है। थेरगाथा, 215 थेरगाथा, 121 जातकमाला (i) *सद्धर्मपुण्डरीक, xxii Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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