Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
137
मैंने जो भी पाप किए हों, किन्तु यदि वे मेरी स्मृति में न हों, फिर भी मैं उनकी सम्यक् आलोचना करता हूं।' आगे क्षपक इस प्रकार कहे- अरिहन्त, सिद्ध, साधु व स्व-आत्मा की साक्षी से एवं वर्तमान में विहरमान सीमंधर स्वामी आदि की साक्षी से जो-जो मुझे स्मरण है तथा जो-जो मुझे स्मरण नहीं भी है, उन सबकी मैं आलोचना करता हूं।
इस प्रकार, अपने पूर्वकृत पापों की आलोचना करता हुआ विशुद्ध परिणामों से युक्त आराधक मान व माया से विप्रमुक्त होकर, अर्थात् कषायों का भार उतारकर रख देने वाले भारवाहक के समान अत्यन्त हल्का हो जाता है । जो क्षपक लज्जा, अभिमान और ज्ञान ले मद में मदोन्मत्त होकर अपने दुष्कृत्य को गुरु के सम्मुख नहीं कहता है, वह वस्तुतः आराधक नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार, समाधिमरण का इच्छुक साधक पूर्वकृत्यों की आलोचना करके अपने पापों का प्रक्षालन करे। संसार में व्यक्ति अनेक प्रकार की गलतियां करता है। गलतियों (भूलों) के एवं कर्ता परिस्थितियों के अनुसार प्रायश्चित्त के भी विविध भेद किए गए हैं।
भगवत -सत्र एवं स्थानांगसत्र में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताए गए हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में पारांचिक को छोड़कर प्रायश्चित्त के नौ भेद किए गए हैं। प्रायश्चित्त के दस भेद इस प्रकार हैं- 1. आलोचनार्ह 2. प्रतिक्रमणार्ह 3. तदुभयार्ह 4. विवेकार्ह 5. व्युत्सगार्ह 6. तपार्ह 7. छेदार्ह 8. मूलाह 9. अनवस्थाप्याह और 10. पारांचिकाह।
प्रायश्चित्त के इन दस भेदों में से प्रथम स्थान आलोचना का है। आलोचना
अपने दोषों को सरल एवं सहज रूप से गुरु के समक्ष प्रकट करना ही आलोचना है। आलोचना स्व-निन्दा है। परनिन्दा करना सरल है, परन्तु स्वयं के दुष्कृत्यों को प्रकट करना अति दुष्कर है। जिसका मन बच्चे की तरह निष्कपट होता है, सरल होता है, वही अपने दोषों को प्रकट कर सकता है।
संवेगरंगशाला' के आलोचनाविधि-द्वार में जिनचन्द्रसूरि लिखते हैं- रत्नत्रयी की साधना हेतु क्षपक परगण में आचारवान् आदि गुणों से युक्त निर्यापक की शरण को ग्रहण करता है। इस तरह, वह परगणसंक्रमण कर वहाँ आलोचना करके निःशल्य होकर अंतिम आराधना द्वारा अपनी
छउमत्थो मूढमणो कितियमित्तं तु संभरइ जीवो।
जं च न सुमरामि अहं मिच्छा मे दुक्कडं तस्स।। - वही - 208 2 अरहंतसक्खियं सिद्ध-साहू-देव ऽप्पसक्खियं तह य।
सीमंधर-जुगमंधरसामीण चेव सक्खीयं ।। - वही - 209 कयपावो वि मणुस्सो आलोइय निंदियं गुरुसगासे।
होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरोव्व भारवहो।। - आराधनापताका- गाथा- 212 'लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएणवा विदुच्चरियं ।
जे न कहिंति गुरुणं न हु ते आराहगा भणिया।। - वही - गाथा-213 भगवतीसूत्र -5/25 स्थानांगसूत्र - स्थान - 10
तत्त्वार्थसूत्र -9/22 8 ओघनियुक्ति – 801 संवेगरंगशाला, गाथा, 4871-4876
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org