Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
31
आमियोगिक-भावना- अग्नि के अन्दर होम करके, औषधादि द्वारा अन्य को वश में करके, रक्षा-सूत्र से दूसरों की रक्षा करके, अंगूठे आदि में देव उतारकर, दूसरों के प्रश्नों का उत्तर देकर, स्वप्नविद्या अथवा पिशाचादि से पर के अर्थ का निर्णय करके, निमित्त-शास्त्र द्वारा दूसरों को लाभ-हानि बताकर आजीविका चलाना आभियोगिक-भावना है। आसुरी-भावना-आराधना-पताका में आसुर-निकाय के देवों की सम्पत्ति देने वाली आसुरी-भावना का वर्णन निम्न पांच प्रकार से किया गया है(क) विग्रहशीलत्व- बार-बार झगड़ा करना।
सक्तिरहित तप करना। (ग) निमित्त कथन करना। (घ) निष्कृपता- करुणा का अभाव। (ड.) निरनुकंपत्व- अनुकम्पा का अभाव।
इन पांचों का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि पहली भावना वाला हमेशा लड़ाई-झगड़े में रुचि रखता है। दूसरी भावना वाला आहारादि प्राप्त करने के लिए तप करता है। तीसरी भावना वाला अभिमान अथवा दूसरों के प्रति द्वेषवश गृहस्थ को भूत-भविष्य बतलाता है। चौथी भावना वाला त्रसादि जीवों पर करुणा नहीं करता है और पांचवीं भावना वाला दूसरों को दुःख से पीड़ित एवं भयभीत होते देखकर भी निष्ठुर हृदय वाला होता है। (5) सम्मोही-भावना- आराधना-पताका के कुभावना-त्याग-प्रतिद्वार में स्व-पर को मोहित करने वाली सम्मोह नामक अप्रशस्त-भावना का उल्लेख किया गया है। इसके भी पांच भेद किए गए हैं, जो निम्न हैं - (क) उन्मार्ग-देशना- सम्यग्ज्ञानादि को दोषपूर्ण बताकर उससे विपरीत मोक्षमार्ग का उपदेश करना, उन्मार्ग-देशना है। (ख) मार्ग-दूषण- मोक्ष-मार्ग, अर्थात् सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में स्थित मनुष्यों के दोषों को बताना मार्ग-दूषण-भावना कहलाता है। (ग) मार्ग-विप्रतिपत्ति- अपने स्वच्छन्द वितों से मोक्षमार्ग को दूषित मानकर उन्मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन मार्ग-विप्रतिपत्ति-भावना है। (घ) मोह (मूढ़ता)- अन्य धर्म एवं दर्शनों की पूजा-प्रतिष्ठा को देखकर मोहित होना मूढ़ता कहा गया है। (ड.) मोहजनन-भावना- गैरिक, तापस, शाक्यभिक्षु आदि के धर्म में श्रद्धा रखना, अथवा लोक में जिनकी पूजा और सत्कार होता है, उन धर्म-दर्शनों के प्रति आदरभाव रखना मोहजनन-भावना है।
आराधना-पताका में कहा गया है कि संयत-चारित्रवान् मुनि या समाधिमरण का साधक भी यदि इन अप्रशस्त-भावनाओं में से किसी भी प्रकार की भावना में प्रवृत्ति करता है, तो वह भवान्तर में देवयोनि में उत्पन्न होता है और वही से आयुष्य पूर्ण कर संसार में परिभ्रमण करता है, अतः चारित्र की मलिनता में हेतुभूत और दुर्गति देने वाली इन पाँचों अप्रशस्त-भावनाओं से समाधिमरण के साधक को दूर रहना चाहिए। 15. संलेखनातिचार-परिहरण-अनुशिष्टि-प्रतिद्वार -(गाथा 723-728)
इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक-साधक को समझाते हुए कहते हैं- तुम संलेखना के पांच अतिचारों का वर्जन करो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org