Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
अवमानना या महाव्रतों और अणुव्रतों की साधना में जो स्खलना हुई है, उसकी आलोचना का निर्देश है ।
मिथ्यादुष्कृत- कुलक (द्वितीय) - इस प्रकीर्णक में 17 गाथाएं हैं। इस कुलक के प्रारम्भ मे "आराधक द्वारा चौरासी लाख जीवयोनियों में भ्रमण करते हुए जिन-जिन प्राणियों को दुःख दिया गया है, उसका मिथ्याकृत करने, अर्थात् आलोचना करने का निरूपण है। इस लोक में तथा परलोक में जो मिथ्यात्वमोह से मूढ़ हैं एवं जिनके द्वारा साधुओं की सेवा, साधर्मिक - वात्सल्य, चतुर्विध - संघ की भक्ति नहीं की गई, उनके लिए मिथ्यादुष्कृत किया गया है। 2
अभयदेवसूरि प्रणीत आराधना - प्रकरण - इस प्रकीर्णक में 85 गाथाएं हैं । अन्तिम गाथा में 'अभयदेव सूरिइयं' - इस उल्लेख से इसके कर्त्ता अभयदेवसूरि निश्चित होते हैं। इसकी प्रथम गाथा में मरणविधि के छः द्वारों का वर्णन है- (1) आलोचना ( 2 ) व्रतोच्चार ( 3 ) क्षामणा (4) अनशन (5) शुभ भावना और (6) नमोक्कार - भावना । प्रथम आलोचना -द्वार विविध तपों से सूखे हुए होने अथवा रोगों को दूर करने हेतु उपक्रम के अभाव में क्षीण शरीर होने एवं मृत्यु आसन्न होने पर मृत्यु-भय की चिन्ता न कर शल्य-मरण के गुण-दोषों का विचार करना चाहिए। द्वितीय व्रतोच्चार -द्वार में सुगुरु के समीप निःशल्य होकर साधु महाव्रतों का भावपूर्वक उच्चारण करता है।
तृतीय, क्षमापना -द्वार में आराधक चतुर्विध- संघ एवं संसार में जिसके प्रति भी मोहवश अपराध हुआ हो, उससे क्षमायाचना करता है। चतुर्थ, अनशन -द्वार में सर्व प्रकार के आहार का त्यागकर अनशन करने का निरूपण है। पंचम, शुभभावना-द्वार में एकत्व आदि बारह भावनाओं का चिन्तन करने का निर्देश है। षष्ठ द्वार, नमोक्कार - भावना में पंचपरमेष्ठियों की वन्दना करते हुए नमोक्कार - मन्त्र का माहात्म्य बताया गया है ।
संवेगरंगशाला- समाधिमरण - सम्बन्धी ग्रन्थों में श्वेताम्बर - परम्परा में लिखें गए जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ वर्त्तमान में उपलब्ध होते हैं, उनमें संवेगरंगशाला का महत्वपूर्ण स्थान है। श्वेताम्बर - परम्परा के समाधिमरण - सम्बन्धी ग्रन्थों में यह ग्रन्थ सबसे अधिक विशाल है। यह ग्रन्थ मूलतः महाराष्ट्री - प्राकृत में रचित है । इसके लेखक खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्रसूरि माने जाते हैं। इस ग्रन्थ में समाधिमरण - सम्बन्धी प्रक्रिया का सांगोपांग विवेचन मिलता है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें समाधिमरण सम्बन्धी कथानक भी विस्तार से वर्णित है । इन लगभग 80 कथानाकों के कारण यह ग्रन्थ दिगम्बर- परम्परा के भगवती आराधना की अपेक्षा भी अधिक विशालकाय हो गया है। हमारे समालोच्य ग्रन्थ आराधना - पताका में जिन - कथानकों का मात्र एक या दो गाथाओं में निर्देश है, उनमें से अनेक कथानक इस ग्रन्थ में विस्तार के साथ वर्णित हैं। इस ग्रन्थ का रचनाकाल लगभग बारहवीं शताब्दी माना जाता है । इस प्रकार यह ग्रन्थ समीक्ष्य आराधना - पताका और वीरभद्रकृत आराधना - पताका की अपेक्षा भी परवर्ती है। आचार्य जिनचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती समाधिमरण सम्बन्धी ग्रन्थों को आधार बनाकर ही इस ग्रन्थ की रचना की होगीऐसा लगता है । वर्त्तमान में इस ग्रन्थ के हिन्दी और गुजराती अनुवाद तथा साध्वीश्री दिव्यांजनाजी का इस ग्रन्थ पर लिखा शोध-प्रबन्ध 'जैनधर्म में आराधना का स्वरूप उपलब्ध होतें हैं, किन्तु मुझे यह मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका । यद्यपि इसका एक संस्करण प्रकाशित भी हुआ था, किन्तु मुझे वह भी अनुपलब्ध ही रहा है, यही कारण है कि हम समीक्ष्य ग्रन्थ आराधना - पताका की
1 मिथ्यादुष्कृत कुलक- 'पण्णयसुत्ताई'
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भाग-2, - गाथा 1-12 - पृ. 245-246. 'मिथ्यादुष्कृत कुलक (द्वितीय) - 'पइण्णयसुत्ताई- - भाग 2 - गाथा 1-16 पृ. 247 - 248.
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