Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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मृत्यु से नहीं डरते हैं।' तत्पश्चात्, उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित मृत्यु के विभिन्न प्रकारों की चर्चा करते हुए तीन प्रकार के यावत्कथित अनशनों का वर्णन किया है। जिनसे साधक समाधिमरण को प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक-साधना में संलेखना के महत्व की चर्चा करते हुए वे इस साधना के लिए साधकों की पात्रता तथा इस साधना के उचित समय की ओर भी इंगित करते हैं। वैदिक-परम्परा में प्रचलित महाप्रस्थान आदि इच्छा-मृत्यु की भी वे इस ग्रन्थ में जानकारी देते हैं, साथ ही इस प्रकार की साधना के विभिन्न दोषों की ओर इशारा करते हुए इसकी समाधिमरण के साथ तुलना भी करते हैं। वे संलेखना और आत्महत्या की तुलना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि संलेखना आत्महत्या नहीं है।
उत्तराध्ययनसूत्र- एक परिशीलन-उत्तराध्ययनसूत्र पर इस विद्वत्तापूर्ण समालोचनात्मक ग्रन्थ के विशेष साध्वाचार' नामक पांचवें अध्याय के अनशन-खण्ड में संलेखना और समाधिमरण विषयों की समालोचना की गई है। इस खण्ड के प्रारम्भ में ही लेखक इत्वरिक-अनशन का उल्लेख करके यावत्कथित (आमरण) अनशन विषय पर आ जाता है। लेखक ने प्रारम्भ में ही सकाममरण और आत्महत्या का अन्तर स्पष्ट किया है।
जैन, बौद्ध और गीता का साधना-मार्ग-जैन-दर्शन के मूर्द्धन्य विद्वान् प्रो. सागरमल जैन द्वारा लिखित इस संशोधनात्मक ग्रन्थ के 'सम्यक् तप तथा योगमार्ग' नामक सातवें अध्याय में तप का वर्णन किया गया है। आत्मिक-शुद्धिकरण के लिए इसकी महत्ता का अध्ययन करते हुए यह कहा गया है कि जैन, बौद्ध और वैदिक- तीनों परम्पराओं ने तप को कर्म-बन्धनों तथा सांसारिक-जन्म के प्रवाह से मुक्त होने का साधन माना है। तत्पश्चात्, ग्रन्थ में जैन-परम्परा में प्रविदित विभिन्न प्रकार के तपों का उल्लेख करते हुए उसमें आमरण अनशन को अनशन-तप का ही भाग माना गया है। तप का वर्गीकरण करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि तप चार प्रकार के होते हैं
1-जो तप स्वयं के लिए कष्टकारी हो तथा दूसरों के लिए कष्टकारी न हो, ऐसे तप को आत्मन्-तप कहा गया है।
2-जो तप दूसरों के लिए कष्टकारी हो, स्वयं के लिए कष्टकारी न हो, ऐसे तप को परंतप कहा गया है।
3-जो तप स्वयं के लिए व दूसरों के लिए भी कष्टकारी हो, उसे उभयतप कहा गया है। 4-जो तप स्वयं के लिए व दूसरों के लिए भी कष्टकारी न हो, उसे सुखनतप कहा गया
. मध्यम-मार्ग के अनुसार चतुर्थ प्रकार का तप ही श्रेयस्कर है। जैन और बौद्ध-परम्पराओं में तप की अवधारणा की तलना करते हुए लेखक ने कहा है कि अनशन
न-तप को छोडकर शेष ग्यारह प्रकार के तपों में दोनों परम्पराओं मे लगभग मतैक्य है।
संलेखना : ए फिलोसोफिकल स्टडी-डॉ. पी.बी. चौगले द्वारा किए गए इस शोध-अध्ययन में दिगम्बर-परम्परा के जैन-साहित्य पर आधारित संलेखना का दार्शनिक-अध्ययन किया गया है। इसमें संलेखना के सिद्धान्त और साधना का विस्तृत विवेचन करते हुए अन्य
'जैन आचार सिद्वान्त और स्वरूप - देवेन्द्र मुनि (आचार्य)- श्री तारक गुरू जैन ग्रन्थालय , उदयपुर 1982 उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन - लाल डॉ. सुदर्शन - पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी 1971 जैन, बौद्व और गीता का साधना-मार्ग- डाँ.सागरमल जैन - प्राकृत भारती संस्थान , जयपुर 1982
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