Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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स्वल्प' है, मैंने दीर्घ संयम का पालन किया है, मैंने शिष्यों को वांचना भी दी है, मैंने योग्य शिष्य-समुदाय तैयार कर दिए हैं, अब मुझे आत्मसाधना में लग जाना चाहिए, तब वह अपने गच्छ का संचालन सुव्यवस्थित रूप से करने के लिए अपने योग्य शिष्य को बुलाकर कहता है कि मैं तो इस गण का त्याग कर दूसरे गच्छ में अपनी साधना-आराधना करने के लिए कदम बढ़ा रहा हूँ, मुझे मेरा समय निकटस्थ नजर आ रहा है, अतः तुम इस संघ या गच्छ का संचालन उचित ढंग से करना, स्वाध्याय में सावधान रहना, गच्छ के मुनियों के प्रति स्नेहमयी दृष्टि रखना। तुम आलसी, प्रमादी मत बनना, तुम अष्टप्रवचन-माता की विधिपूर्वक प्रतिपालना करते हुए संयम में आंगे बढ़ना। फिर, उस प्रधान शिष्य को अपने पद पर प्रतिष्ठापित करके सकल संघ को आमन्त्रित कर वह क्षपक आबाल-वृद्ध सभी से क्षमायाचना करता है और कहता है कि स्नेह व राग के वशीभूत होकर मैंने किसी को कटुक या कठोर वचन कहा हो, तो निःशल्य व निष्कषाय होकर क्षमायाचना करता हूँ। तब, उस क्षपक या आचार्य के वे शिष्य भी अपने गुरु के वचनों को सुनकर आनन्द से अश्रुपात करते हुए भूमिगत होकर अपने धर्माचार्य से त्रिविध (मन,वचन,काया) से क्षमा याचना करते हैं। उस समय वह आचार्य अपने गच्छ का कल्याणक हो, इसके लिए अपने शिष्य-समुदाय या श्रावक-वर्ग को मधुर वाणी से कल्याणकारी, अनुशासन से जीवन जीने का पाथेय देते हैं। इस प्रकार, समाधिमरण की साधना करने से पूर्व क्षपक या श्रावक को अपने शिष्यों या फिर अपने पत्रों को कार्यभार सौंपकर ही जाना चाहिए और इस प्रकार आचार्य या मुनि को गणत्याग तथा गृहस्थ को गृहत्याग अवश्य करना चाहिए ।
मुनि गच्छ में रहकर या श्रावक परिवार के बीच रहकर साधना के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता है । गच्छमोह और गृही-जीवन का त्याग जरूरी है। गणत्याग न करूंगा, तो शिष्यों का व्यामोह संघ या संसार में फंसा लेगा और मैं अपनी साधना से च्युत हो जाउंगा- इस प्रकार का विचार कर अपने गच्छ का त्याग करके वह क्षपक (सूरिक्षपक) सम्यक् प्रकार से भक्तपरिज्ञा-अनशन आराधनारूढ़ होता है।
'आराहणं करितो जइ आयरिओ हविज्ज तो तेण। नाऊण आउकालं चिंतेयव्वं नियमणम्मि।। - आराधनापताका - गाथाद्वार- 13/103
2 अववोच्छित्तिनिमित्तं ताहे गच्छाणुपालणत्थं च। नाउं अत्तगुणसमं ठावेई गणहरं धीरो।। -आराधनापताका, गाथा- 105 गणहर गुण संपन्नं वामे पासम्मि ठावइत्ताणं ।
चुन्नाई छुहहइ सीसे सच्चिताई य अणुजाणे।। वही.. गाथा- 106 * ठावेऊण गणहरं आमंतेऊण तो गणं सयलं।
खामे सबालवुढं पुव्वविरुद्धे विसेसेण ।। वही., गाथा-107 'अन्नं पि जं पमाया न सुठु भे वट्टियं मए पुब्बिं ।
तंभे खामेहि अहं निसल्लो निक्कसाओ य।। वही,, गाथा- 109 ° आणंद मंसुपायं कुणमाणाते वि भूमिगय सीसा।
धम्मायरियं निययं सब्वे खामेंति तिविहेण ।। - वही - गाथा-110 'ताहे संठविय गणं विहिणा, एमेव, गणनिसग्गं च।
काऊण, सूरिखंवगो सूरिखवगो आराहण मारूहे सम्म।। - आराधनापताका, गाथा-144
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