Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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इस प्रकार दोनों में किसी सीमा तक नाम की भी समानता है और अन्त में भगवती या पताका शब्द मात्र विशेषण के रूप में प्रयुक्त हए हैं।'
यह भी स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में ग्रन्थों के आदि में मंगल करने की परम्परा किंचित् परवर्तीकालीन ही है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा के आगमों में भगवती और प्रज्ञापना आदि के कुछ अपवादों को छोड़कर आदि-मंगल नहीं किया गया है। इन दोनों ग्रन्थों में भी आदि-मंगल के रूप में मात्र नमस्कार-मन्त्र का पाठ ही मिलता है और विद्वानों की तो यहाँ तक मान्यता है कि यह पाठ भी परवर्तीकाल में उन ग्रन्थों में प्रक्षिप्त हुआ है, जबकि भगवती-आराधना और आराधना-पताका- दोनों ही ग्रन्थों में आदि मंगल स्पष्ट रूप से मिलता है, जो उनकी समानता का सूचक है, फिर भी दोनों ग्रन्थों की अन्तिम प्रशस्ति देखने पर दोनों में एक अन्तर भी दिखाई देता है। प्राचीनाचार्यकृत इस आराधना-पताका में ग्रन्थकर्ता ने कहीं भी स्पष्ट रूप से अपने नाम का निर्देश नहीं किया है, मात्र आराधना-पताका के महत्व की ही स्थापना की गई है, जबकि इसके विपरीत, भगवती-आराधना की अन्तिम ग्रन्थप्रशस्ति में आराधना के महत्व को बताने के साथ-साथ ही ग्रन्थकार ने अपनी परम्परा भी स्पष्ट रूप से दी है। उन्होंने यह लिखा है कि आर्यजिनन्दीगणी, सर्वगुप्तगणी और आर्यमित्रनन्दी के पादमूल में सम्यक् रूप से श्रुत और अर्थ को जानकर पूर्व आचार्यों के द्वारा निबद्ध आराधना को आधार बनाकर 'पानीतलभोजी शिवार्य' ने इस आराधना की रचना की।
भगवती-आराधना की इस अन्तिम प्रशस्ति-गाथा से दो बातें और भी सिद्ध होती हैं। प्रथम तो यह कि जहाँ आराधना-पताका में अन्तिम प्रशस्ति में भी लेखक अपने नाम का निर्देश नहीं करता है, वहाँ भगवती-आराधना में यह निर्देश ही ही नहीं, अपितु अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख भी ग्रन्थकार करता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि ग्रन्थों के अन्त में ग्रन्थकार का नाम, उसकी गुरु-परम्परा आदि का उल्लेख एक परवर्तीकालीन घटना है। इस आधार पर कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका भगवती–आराधना से भी पूर्ववर्ती हो।
दूसरे यह कि भगवती-आराधना की इन प्रशस्ति-गाथाओं में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि शिवार्य ने पूर्व आचार्यों द्वारा निबद्ध आराधना नामक ग्रन्थ को उपजीव्य बनाकर ही इस ग्रन्थ की रचना की। जहाँ तक हमें ज्ञात है कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-परम्परा में भी आराधना नामक किसी ग्रन्थ का अस्तित्व इस प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका के पूर्व नहीं रहा है, क्योंकि उसके पूर्व की रचनाएँ मरणसमाधि, मरणविभक्ति आदि के नामों से ही प्रचलित रही हैं। इस आधार पर यह
दूसर
1साइमणंतं कालं तथ सिविम्मि गओ विगयवाहो।
जीवो सुहिओ चिट्ठअ पज्जंताऽराहणपभावा।। गाथा- 925 - (अ) भगवतीसूत्र – 1/1 (ब) प्रज्ञापनासूत्र - 1/1 'आराहणापडागं एयं जो सम्ममायरइ धन्नो।
सो लहइ सुद्धसद्धो तिलोयचंदुज्जलं कित्तिं। आराधनापताका 931 ।। कम्माऽऽमयप्पसमणं लच्छिनिवासप्पभूयमिहविवुहा। अजरामरपयहेउं सेवह आराहणा अमयं ।। आराधनापताका 932 ।। 'अज्जजिणभंदिगणिं - सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं।
अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च।। भगवती-आराधना - 2159, 2160. 'पुव्वायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए।
आराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा।। भगवती आराधना 2160 ।।
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