Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 136
________________ 122 साध्वी डॉ. प्रतिभा व्यवहारवान-संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने व्यवहारवान् का स्वरूप बताते हुए कहा है कि वही आचार्य व्यवहारवान् होता है, जिसको प्राचश्चित्त-शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो, प्राचश्चित्त के योग्य कर्म का विवेक तथा किस व्यक्ति को किस प्रकार का प्राचश्चित्त देना, इसका अच्छी तरह अनुभव हो। व्यवहार पांच प्रकार का होता है- आज्ञा, श्रुत, आगम, धारणा, जीत। जो आचार्य प्रायश्चित्त-शास्त्र का ज्ञाता नहीं हो, वह यदि प्रायश्चित्त देता है, तो वह अशुभ-कर्म का बंधन करके भव-भ्रमण को बढ़ा लेता है। व्यवहार को जानने वाला आचार्य ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, क्षपक के परिणाम, उसका उत्साह, उसके शरीर का बल आदि परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्राचश्चित्त देता है। ऐसे व्यवहारवान आचार्य के सान्निध्य में रहने से निश्चय से दोषों की शुद्धि होकर समाधि सम्यक् प्रकार से होती है। प्रभावशाली-आचार्य क्षपक के अन्तर में छुपे हुए सभी दोषों को बाहर निकलवाता है और उसे निरतिचार रत्नत्रय की आराधना से जोड़ता है, इसलिए आचार्य तेजस्वी, बलवान्, ओजस्वी वाणी का धारक तथा कुशल होना चाहिए। प्रकुर्वी-जो आचार्य क्षपक के वसति से निकलने, अथवा उसमें प्रवेश करने में वसति-संस्तारक कैसे बिछाना, उपकरण आदि शोधन में क्षपक के लिए कैसा आहार लाना, कैसे बैठाना, कैसे उठाना, उसके शरीर के मल का विसर्जन किस प्रकार करना, इस प्रकार पण्डितमरण करवाने में पूर्ण रूप से सहयोग करता है, वही आचार्य प्रकर्वक होते हैं। इस प्रकार, जो आचार्य अपने शरीर की परवाह नहीं करते, ऐसे आचार्य के पास रहकर क्षपक प्रसन्नता एवं सुख का अनुभव करता है, अतः क्षपक को योग्य आचार्य के सान्निध्य में ही अपनी साधना को पूर्ण करना चाहिए। निर्यापक अथवा निर्वाहक-संवेगरंगशाला के अनुसार निर्यापक-आचार्य अगर क्षपक की मनःस्थिति को न जाने एवं आहार आदि लाने में देरी कर दे, क्षपक की सेवा में प्रमाद कर दे, तो क्षपक का मन खिन्न हो सकता है, फिर वह क्षपक आत्तध्यान करता हुआ शीत, उष्ण, भूख-प्यास से पीड़ित होकर अपनी मर्यादा को भूलकर नियमों का उल्लंघन करने के लिए तत्पर हो जाता है, तब क्षमाशील मुनि एवं सरल परिणाम वाला आचार्य ही क्षपक को शान्त करने के लिए क्षपक की समाधि बनी रहे, इसलिए सनतोषप्रद वाणी का प्रयोग करता है। मर्यादा का उल्लंघन करने वाले क्षपक के चित्त को शान्त करना चाहिए। इस ग्रन्थ में आगे बताया गया है कि आचार्य किस प्रकार के क्षपक के चित्त को शान्त करते हैं- जो आचार्य आगम-रहस्य का ज्ञाता हो, विविध योगों से श्रुत-शास्त्र का निरूपण करने वाला हो, रत्नत्रय का ज्ञाता हो, इन्द्रिय-विजेता हो, वही निर्यापक-आचार्य हित, मित और प्रिय वचनों से युक्त आगम-कथानक को कहता है। उसे सुनकर क्षपक को पूर्व में अभ्यास किए श्रुत के अर्थ का स्मरण हो जाता है। इस तरह, निर्यापक-आचार्य संयम और गुणों से पूर्ण, किन्तु परीषहरूप लहरों से चंचल ए लपकरूपी जहाज का मधुर एवं हितकारी उपदेशों से संरक्षण करता है। यदि वह आचार्य आहितकारी ऐसी मधुर जिनवाणी क्षपक को न सुनाए, तो मुख-सुख को प्राप्त कराने वाली आराधना को क्षपक छोड़ देता है, अतः निर्यापक के सभी लक्षणों से युक्त आचार्य क्षपक का उपकारी होता है और उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलती है। संवगेरंगशाला - गाथा-4657-4663 वही - गाथा- 4664-4671 वही - गाथा- 4672-4675 *संवेगरंगशाला - गाथा-4676-4684 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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