Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 129
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 115 'अन्तकृत्दशा' में गज सुखमाल के सिर पर सोमिल द्विज ने मिट्टी की पाल बांधकर धधकते अंगारे सिर पर लाकर रख दिए, परन्तु उस क्षमा के सागर गज सुखमाल ने उफ्फ तक नहीं किया और इस दारुण पीड़ा को सहते हुए गज सुखमाल ने समत्त्व-भाव से समाधिमरण किया । इसके आलावा, वृद्धावस्था के कारण अथवा रोग या व्याधि के कारण आत्मशुद्धि के लिए समाधिमरण करने के भी अनेक उदाहरण जैनागमों में मिलते हैं। वस्तुतः, जब शरीर इतना दुर्बल या क्षीण हो गया हो कि व्यक्ति को अपना जीवन दूसरे के लिए भारस्वरूप लगने लग गया हो, या व्यक्ति स्वयं के कार्यों को भी ढंग से नहीं कर पाता हो और अपने कार्य के लिए भी दूसरे व्यक्ति का आलम्बन लेना पड़े, दुर्बलता के कारण इंन्द्रियां अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर पाती हो, तो ऐसी परिस्थिति में समाधिमरण ग्रहण करना उचित ही है। इसके अतिरिक्त, प्राकृतिक एवं प्राणीकृत संकट-विपदा आने पर भी व्यक्ति समाधिमरण ग्रहण कर सकता है। अकालजन्य भुखमरी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक-विपदाएं हैं। आग में जलना, पानी में डूबना, ऊँचाई से गिरना- ये प्राकृ तिक एवं प्राणीकृत- दोनों विपदाएं हैं। कभी-कभी नदी में बाढ़ आ जाती है, जिससे डूबने से मृत्यु हो जाती है। इन परिस्थितियों में व्यक्ति को अगर स्पष्ट रूप से मृत्यु की संभावना लगने लगे, तो वह परिस्थिति समाधिमरण करने हेतु उचित अवसर है। प्राकृतिक एवं प्राणीकृत विपदाओं के कारण व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना हो, तो उसे समाधिमरण (सागारी-संथारा) कर लेना चाहिए। समाधिमरण-ग्रहण की प्रक्रिया आराधना-पताका में, समाधिमरण किस प्रकार से ग्रहण किया जाता है ? इस साधना को सम्यक् किस प्रकार से बनाया जाता है ? इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें यह बताया गया है कि किस-किस रूप में किस-किस प्रकार से समाधिमरण की साधना की जाती है। उसके पश्चात्, आराधना-पताका में समाधिमरण के दो रूपों, अर्थात् आभ्यंतर और बाह्य रूपों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कषाय की संलेखना करना, अर्थात् अन्तर में निहित कषायों को देखकर उनके निरसन का प्रयास करना आभ्यन्तर-संलेखना है, जबकि मृत्यु-पर्यन्त आहार आदि का त्याग करते हुए शारीरिक-आवेगों को कृश करना, यह बाह्य-संलेखना है। इसके पश्चात्, प्रस्तुत कृति में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से शरीर-संलेखना के तीन प्रकारों की चर्चा हुई है। उत्कृष्ट शरीर-संलेखना, अर्थात् शरीर और इन्द्रिय को कृश करने की प्रकिया बारह वर्ष की बताई गई है। मध्यम संलेखना बारह मास या एक वर्ष की तथा जघन्य संलेखना छ: माह की बताई गई है। इसके पश्चात्, उत्कृष्ट संलेखना में तप आदि की विधि किस प्रकार की होना चाहिए, इसका निर्देश करते हुए कहा गया है कि प्रथम चार वर्षों में विगयरहित, अर्थात् घी, तेल, दूध-दही, मिठाई आदि से रहित रुक्ष भोजन करना चाहिए। उसके पश्चात्, दो वर्ष तक 'अन्तकृत्दशा - अष्टम अध्ययन, तृतीय वर्ग, पृ. 78-80 संलेहणा उ दुविहा अभितरिया 1 य बाहिरा 2 चेव। अभिंतरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे।। -आराधनापताका, गाथा 8 'तषुसंलेहा तिविहा उक्कोसा 1 मज्झिमा 2 जहण्णा 3 य। बारस वासा 1 बारस मासा 2 पक्खा वि बारस उ 3||-आराधनापताका, गाथा 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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