Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
समक्ष उपस्थित होते हैं, उनके निदान के लिए आचारांगसूत्र में उल्लेख मिलता है। इन बारह वर्षों में साधक कषायों को कृश (अल्प) करके अल्पाहारी बनकर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है। यदि भिक्षु को आहार की आसक्ति छूट गई, तो वह आहार के पास जाता भी नहीं है और आहार का सेवन भी नहीं करता है।' अनशन-व्रत में स्थिर साधक जीने-मरने की आकांक्षा से उपरत रहता है। सुख-दुःख में समत्व का भाव बनाए रखकर कर्मों की निर्जरा करने वाले पथ की साधना करता है तथा राग-द्वेष, कषाय आदि आन्तरिक और शरीर, उपकरण आदि बाह्य-पदार्थों का त्याग करके शुद्ध अध्यात्म-मार्ग की खोज करता है। समाधिमरण लेने के समय यदि व्यक्ति को अपने जीवनकाल में किसी भी तरह से आतंक आदि का उत्पात दिखाई देने लगे, तो उस समाधिमरण-काल के बीच में ही व्यक्ति भक्त-प्रत्याख्यान कर पण्डितमरण अपना लेता है, तब साधक या व्यक्ति ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिल-भूमि का अवलोकन करता है और जहाँ जीव-जन्तु से रहित स्थान होता है, वहीं संथारा बिछा लेता है। संथारा के लिए वह घास, कुश आदि, अथवा लकड़ी के पट्टे आदि का उपयोग भी कर सकता है, किन्तु कभी-कभी तो वह संथारे के लिए सिर्फ जमीन या शिलापट्ट का ही उपयोग करता है। व्यक्ति संस्तारक पर चतुर्विध-आहार का त्याग कर समाधिभाव से लेट जाता है। उस समय परीषह-उपसर्ग भी आ जाए, तो समभावपूर्वक सहज भाव से साधना में लीन रहता है। मनुष्य द्वारा अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है। रेंगने वाले जन्तु, जैसेचींटी आदि प्राणी या आकाश में ऊपर उड़ने वाले जीव जैसे- गिद्ध आदि जीव या जमीन पर रहने वाले जन्त, जैसे- सर्प आदि यदि उसे नोंच-नोंच कर खाते हैं, तो भी वह साधक उन्हें हटाता नहीं, बल्कि मारता नहीं, समताभाव से इस उपसर्ग को सहन करता है। साथ ही, उस साधक के मन में यह चिन्तन-धारा चलती है कि ये मेरे देह का ही तो नाश कर रहें हैं, मेरे आत्मगुणों का घात नहीं कर रहे हैं। इस प्रकार, शुभभावों की निर्मल धारा में अवगाहन करते हुए वह साधक उन कष्टों को शान्त चित्त से सहन करता है। इस तरह के साधक शरीर, उपकरण आदि बाहा--रान्थियों तथा
कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए। अह भिक्खु गिलाएज्जा आहारस्सेव अंतियं।। -आचारांगसूत्र (आत्मारामजी म.) 1/8/7/3. जीवियं णाभिकंखेज्जा मरणं णो वि पत्थए।। दुहतो वि ण सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा।। - वही - 1/8/8/4. मज्झत्थो निज्जरापेही समाहिमणुपालए।
अंतो बहिं वियोसज्ज अज्झत्थं सुद्धमेसए।। - वही - 1/8/8/5. *जं किचुवक्कम जाणे आउखेमस्स अप्पणो। तस्सेव अंतरद्धाए खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिते।। - वही - 1/8/8/6.
'अणाहारो तुवटेज्जा पुट्ठो तत्थ हियासए। णातिवेलं उवचरे माणुस्सेहिं वि पुट्ठवं।। - आचारांगसूत्र आत्मारामजी)- 1/8/8/8. संसप्पगा य जे पाणा जे य उड्ढमहेचरा। भुंजते मंससोणियं ण छणे णपमज्जए।। - वही - 1/3/8/9. 7 गंथेहिं विवित्तेहिं आयुकालस्स पारए।
पग्गहिततरगं चेत्तं दवियस्स वियाणतो।। - वही - 1/8/8/11.
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