Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
__आराधना-पताका में द्वितीय परीक्षा-द्वार, तृतीय निर्यापक-द्वार, चतुर्थ योग्यता-द्वार और पंचम गीतार्थ-द्वार में जो विवेचन उपलब्ध होता है, वह विवेचन हमें भगवती-आराधना में भी मिलता है। उसमें गणत्याग, गीतार्थ की खोज, क्षपक की परीक्षा, निर्यापक का स्वरूप आदि की चर्चा है। ये भगवती-आराधना और आराधना-पताका में समान रूप से देखी जाती हैं। आराधना-पताका के उन्तीसवें अन शिष्टि-द्वार के सोलहवें प्रतिद्वार में बारह भावनाओं का उल्लेख हआ है।' भगवती-आराधना में नी न केवल बारह भावनाओं का नामोल्लेख किया गया है, बल्कि गाथा क्रमांक 1710 में इन बारह भावनाओं का नामोल्लेख संक्षेप में किया गया है, किन्तु गाथा क्रमांक 1711 से लेकर 1862 तक लगभग 151 गाथाओं में इन बारह भावनाओं का विस्तार से वर्णन मिलता है, जबकि आराधना-पताका में बारह भावनाओं का यह विवेचन गाथा क्रमांक 729 से लेकर 744 तक मात्र सोलह गाथाओं में किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में जो विषय विस्तार से है, वह मूल आधारभूत अवधारणाओं को लेकर नहीं है, अपितु उनके विस्तृत विवेचन को लेकर ही है।
भगवती-आराधना में समाधिमरण की यह चर्चा दर्शन, ज्ञान और चारित्र-तप को लेकर की गई है। इन चारों का उल्लेख तो आराधना-पताका में है, फिर भी विस्तृत चर्चा नहीं है। आराधना-पताका में इनकी चर्चा आलोचना-द्वार में ज्ञानाचारालोचना, दर्शनाचारालोचना, चारित्राचारालोचना, तपाचारालोचना, वीर्याचारालोचना के रूप में निलती है। यहाँ भी यह स्पष्ट है
हाँ भगवती-आराधना में ज्ञान, दर्शन और चारित्र-तप की चर्चा हुई है, वहीं आराधना-पताका में ज्ञान, दर्शन और चारित्र-तप के साथ-साथ वीर्याचार की भी चर्चा की गई है। यह ज्ञातव्य है कि परवर्तीकाल में यह वीर्याचार की चर्चा गौण हो गई है और आगे चलकर तप का भी अन्तर्भाव चारित्र में कर लिया गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि यह समग्र विवेचन भी भगवती–आराधना में आराधना-पताका की अपेक्षा विस्तृत ही है।
समाधिमरण की साधना में निर्यापक, अर्थात् सहयोगियों का विशेष महत्व होता है। निर्यापकों की संख्या को लेकर आराधना-पताका और भगवती-आराधना- दोनों में समानता पाई जाती है। आराधना-पताका के तीसरे निर्यापक-द्वार में निर्यापकों की संख्या और उनके कार्य आदि का लगभग 14 गाथाओं में विस्तार से विवेचन हुआ है। भगवती-आराधना में भी निर्यापकों के स्वरूप, उनकी संख्या, उनके कार्य, सेवा के हेतु उनकी तत्परता आदि की चर्चा गाथा क्रमांक 645 से लेकर 678 तक, लगभग 32 गाथाओं में निर्यापकों की यह विवेचना है। निर्यापकों की संख्या को लेकर दोनों में एक मत से यह स्वीकार किया गया है कि अधिकतम निर्यापक 48 हो सकते हैं, लेकिन कम से कम दो निर्यापक तो होना जरूरी है। यद्यपि एक निर्यापक के होने पर अनेक प्रकार की
कि
'आसपताका - 29/16/729-742. 'आराध रताका - गाथा- 1711-1862. 'जो जसिओ कालो, भरहेवएसु होइ वासेसु । ते तारिस: तइया अडयालीसं तु निज्जवगा।। एए उवकणं परिहाणीए जहन्नतओ दोन्नि। एगो परिनपासे, बीओ पाणाइ गच्छिज्जा।। एक्कम्भि उ निज्जवए विराहणा होइ कज्जहाणी य। सो सेहा वि य चत्ता पावयणं चेव उड्डाहो।। - आराधनापताका 39-41
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