Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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अन्त में, ग्रन्थकार ने समाधिमरण की आराधना के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट फल की चर्चा करते हुए इस आराधना के काल में आराधक के आसपास आध्यात्मिक-वातावरण बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया है और यह कामना की गई है कि अन्तकाल मे हमें भी समाधिमरण की आराधना करने का सुअवसर प्राप्त हो। . समाधिमरण-सम्बन्धी आधुनिक ग्रन्थ
मोक्षमार्ग-इस ग्रन्थ में पण्डित रतनलाल दोशी सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्ररूपी मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं। इसमें संलेखना और संथारा-विषयक चर्चा दो स्थानों पर की गई है। ग्रन्थ के आगार-धर्म नामक तृतीय भाग में गृहस्थ-उपासकों द्वारा समाधिमरण की आराधना का वर्णन किया गया है तथा अणगार-धर्म नामक चतुर्थ भाग में अन्तिम समय पर मृत्यु आने पर उसका समतापूर्वक सामना करने के महत्व को समझाया गया है। ग्रन्थ के तपधर्म नामक पांचवें भाग में समाधिमरण विषय को यावत्जीवन अनशन के अन्तर्गत समझाया गया है तथा वहीं इसके निम्न तीन प्रकारों का भी उल्लेख किया गया है- 1. पादपोपगमनमरण 2. इंगिनीमरण तथा 3. भक्तप्रत्याख्यान।'
जिणधम्मो-जैनधर्म के सभी पहलुओं को छूने वाले इस ग्रन्थ के 81 वें तथा 98 वें अध्यायों में श्रावक-श्राविकाओं तथा साधु-साध्वियों द्वारा समाधिमरण की आराधना विषयक चर्चा की गई है।
जैन-साधना पद्धति में तपोयोग-मुनि श्रीचन्द द्वारा लिखित इस पुस्तक के तप का विधान नामक खण्ड में संलेखना की अवधारणा और आराधना का भी वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम इसमें यावत्कथित अनशन के आमरण अनशन स्वरूप को विवेचित किया गया है और यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि आमरण अनशन आत्महत्या नहीं है। तत्पश्चात्, मुनिश्री ने अनशन-व्रत लेने के लिए योग्यता को परिभाषित करते हए आमरण अनशन लेने की पात्रता-सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुए यह स्पष्ट किया है कि आमरण अनशन का व्रत कौन और कब ग्रहण कर सकता है ? लेखक के अनुसार संलेखना लम्बे समय तक किया जाने वाला वह तपश्चरण है, जिसे साधक अन्त समय में समाधिमरण ग्रहण करने की तैयारी के रूप में करता है। लेखक के अनुसार सकाममरण के साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रकार के लम्बे तपश्चरण द्वारा अपने शरीर को दुर्बल तथा आत्मा को सबल बना ले। शरीर को साधने के लिए लेखक द्वारा छ: प्रकार के बाह्यतपों, बारह भिक्ष-प्रतिमाओं, आचाम्ल-तप तथा विकति त्याग का वर्णन किया गया है, साथ ही बारहवर्षीय उत्कृष्ट संलेखना, बारहमासीय मध्यम संलेखना तथा क्षणमासीय जघन्य संलेखना का भी वर्णन किया गया है।
संलेखना-एक अनुचिन्तन-इस लघु पुस्तिका में लेखक ने दिगम्बर-जैन-परम्परा में संलेखना की अवधारणा और साधना का संक्षिप्त वर्णन किया है। इसमें संलेखना को परिभाषित करते हुए इसके भावों और प्रभावों का उल्लेख किया गया है तथा मृत्यु के समय शान्ति और
की आवश्यकता पर बल दिया गया है। आत्महत्या से इसकी भिन्नता सिद्ध करते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि आत्महत्या में मृत्यु के समय शान्ति और समाधि का अभाव होता है। समाधिमरण के साधक के लिए भावनात्मक-दृढ़ता पर बल देते हुए लेखक ने कहा है कि यह साधकों और आराधकों- दोनों के लिए आवश्यक है तथा साधन को सम्यक् रूप से संचालित करने
मोक्षमार्ग, दोशी रतनलाल - अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ - सैलाना, 1971. जिणधम्मो - आचार्य श्री नानेश श्रीसमता साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, इंदौर-उज्जैन, 1984. "जैन-साधना पद्धति में तपोयोग - मुनि श्रीचन्द - आदर्श साहित्य संघ चूरू, 1979.
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