Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिमा
आराधनाप्रकरण- आराधनापताका- आराधना-प्रकरण समाधिमरण सम्बन्धी ग्रन्थों में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है। हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ भी प्राचीनाचार्यकृत आराधनापताका से परवर्ती है। इसमें भी अनेक गाथाएं आराधनापताका से ली गई हैं। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम इन गाथाओं को नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं(1) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा माया-मयविप्पमुक्को य।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 172) जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा माया मय विप्पमुक्को य ।
(आराधना-प्रकरण, गाथा 18) (2) न वि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुंणइ वेयालो। जंत्तं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 215) (2) न वि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमायओ कुद्धो।।
(आराधना-प्रकरण, गाथा 05) जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि। दुल्लह बोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 216) (3) जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तिमट्ठकालम्मि। दुल्लहबोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च।।
(आराधना-प्रकरण, गाथा 06) तो उद्धरंति गारवरहिया मूलं पुणब्मवलयाणं । मिच्छादसण सल्लं मायासल्लं नियाणं च ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 217) तो उद्धरं गारवरहिया मूलं पुणब्मवलयाणं। मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं नियाणं च।।
(आराधना-प्रकरण, गाथा 07)
प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका
मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित 'पइण्णइसुत्ताइं में आराधनापताका नामक दो ग्रन्थों का उल्लेख है। उनमें से एक हमारा समालोच्य ग्रन्थ प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका है, दूसरा वीरभद्रकृत आराधनापताका है। दोनों ग्रन्थ एक ही विषय से सम्बन्धित होने के कारण यह स्पष्ट है कि उनमें समानता हो। दोनों में अनेक गाथाएं समान रूप से और अनेक गाथाएं आंशिक-भिन्नता को लेकर पाई जाती हैं। यह तो स्पष्ट है कि वीरभद्रकत त आराधनापताका प्राचीनाचार्यकृत आराधनापताका से परवर्ती है और यही कारण है कि उन्होंने कुछ गाथाएं आंशिक-भिन्नता के साथ ग्रहण की है, ताकि उनका स्वतन्त्र कृतित्व स्थापित हो सके। नीचे हम
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