Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
गाथाओं और इसकी गाथाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं कर सके। संवेगरंगशाला मुख्यतः चार द्वारों में वर्णित है, किन्तु इसके प्रत्येक द्वार में प्रतिद्वारों की संख्या अधिक है और पर्याप्त व्यापक है। इसके प्रथम परिकर्मविधि-द्वार के निम्न पन्द्रह उपद्वार-प्रतिद्वार हैं जो क्रमशः इस प्रकार हैं- (1) अर्हद्वार (2) लिंगद्वार (3) शिक्षाद्वार (4) विनयद्वार (5) समाधिद्वार (6) मनोनुशास्तिद्वार (7) अनियतद्वार (8) राजद्वार (9) परिणामद्वार (10) त्यागद्वार (11) मरणविभक्तिद्वार (12) अधिगत (पंडित) मरणद्वार (13) श्रेणिद्वार (14) भावनाद्वार और (15) संलेखनाद्वार ।
दूसरे परगणसंक्रमणद्वार के दस प्रतिद्वार इस प्रकार हैं- (1) दिशाद्वार (2) क्षामणाद्वार (3) अनुशास्तिद्वार (4) परगणसंक्रमणद्वार (5) सुस्थितगवेषणाद्वार (6) उपसम्पदाद्वार (7) परीक्षाद्वार (8) प्रतिलेखनाद्वार (9) पृच्छाद्वार और (10) प्रतिपृच्छा द्वार |
तीसरे, ममत्वविच्छेदनद्वार के नौ अन्तरद्वार हैं, वे इस प्रकार हैं- (1) आलोचनाद्वार (2) शय्याद्वार (3) संथाराद्वार (4) निर्यापकद्वार (5) दर्शनद्वार (6) हानिद्वार (7) प्रत्याख्यानद्वार (8) क्षमापनाद्वार और (७) क्षामणाद्वार ।
चौथे, समाधिलाभद्वार में भी निम्न नौ अन्तरद्वार है- (1) अनुशास्तिद्वार (2) प्रतिपत्तिद्वार (3) सारणाद्वार (4) कवचद्वार (5)समताद्वार (6) ध्यानद्वार (7) लेश्याद्वार (8) आराधनाफलद्वार और (9) मृतशरीर-विसर्जन (विजहना) द्वार।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें, तो इसके कुल 43 प्रतिद्वार (विभाग) हैं, जबकि आराधना-पताका में बत्तीस द्वार हैं। विजहना-द्वार को छोड़कर शेष प्रतिद्वार आराधना-पताका के बत्तीस द्वारों और उनके कुछ प्रतिद्वारों में समाहित हो जाते हैं।
हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में समाधिमरण-श्रावक यदि संयम ग्रहण करने में अशक्त हो, तो एवं मृत्यु के समीप आ जाने पर पहले व्रतादि द्वारा शरीर को तथा कषायों को क्षीण करे। वैसे तो संलेखना करने के लिए अरिहन्त-प्रभु की कल्याणक-भूमियों में जाना चाहिए, परन्तु यदि ऐसा स्थल समीप न हो, तो एकान्त तथा निर्जीव भूमि पर संलेखना ग्रहण कर सर्वप्रथम चारों प्रकार के आहार का त्याग करके नमस्कार-महामंत्र के जाप में तत्पर बने। अपने पूर्व पापों की गुरु से, या गुरु उपस्थित न हो, तो स्वयं आलोचना करे। अरिहंतादि चारों का शरण ग्रहण तथा इस लोक-सम्बन्धी, परलोक-सम्बन्धी, जीवन-सम्बन्धी एवं मरण-सम्बन्धी सभी आकांक्षाओं या निदान का त्याग करके परीषह तथा उपसर्गों से निर्भय हो जाए, फिर जिनेश्वर के प्रति तथा जिनवाणी के प्रति बहुमान रखते हुए आनंद श्रावक की तरह समाधिमरण अंगीकार करे।
इसके अतिरिक्त, योगशास्त्र के पंचम प्रकाश में काल की निकटता को जानने के विभिन्न उपायों का विस्तार से विवेचन किया गया है, क्योंकि मृत्यु की निकटता को जानना समाधिमरण के साधक के लिए आवश्यक है। पंचम प्रकाश में श्लोक-प्रमाण 72 से लेकर 224 तक मृत्यु की निकटता को जानने के विभिन्न उपायों का वर्णन हुआ है।
दिगम्बर-परम्परा के आगम-तुल्य प्राचीन ग्रन्थों में समाधिमरण
मूलाचार'-आचार्य वट्टकेर-विरचित 'मूलाचार' में भी मुनि की आचारचर्या का विशद विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ के वृहत् प्रत्याख्यानाधिकार नामक दूसरे अध्याय में, संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार नामक तीसरे अध्याय में तथा पंचाचार नामक पांचवे अध्याय में समाधिमरण की चर्चा की गई है। दूसरे अध्याय में समत्व या समाधि की साधना का वर्णन करते हुए तीन प्रकार के
मूलाचार-सम्पादक- आर्यिका रत्न ज्ञानमति माताजी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 1992. अध्याय-2
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