Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
चतुर्गति दुःख-वर्णन- अपक-साधक को चारों गतियों के दुःख का वर्णन करते हुए निर्यापकाचार्य कहते हैं- हे क्षपक ! नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति में जो-जो दुःख तुमने प्राप्त किए, उनका एकाग्र मन से चिन्तन करो। नरक में नारकीय जीव दीर्घश्वास लेते हैं, कारुणिक शब्द एवं दयनीय शब्द बोलते हैं, दुःखपूर्वक स्वादहीन भोजन खाते हैं। वहां पारमाधार्मिक देवों के द्वारा ऊखल में लोह-मूसल से रवांडे जाते हैं, लोहे की कड़ाही में पकाए जाते हैं, पूर्व बैरी नैरयिकों द्वारा अनेक कष्ट दिए जाते हैं, कूटशाल्मली वृक्ष पर सूली पर चढ़ाए जाते हैं, गिद्ध पक्षियों द्वारा हताहत किए जाते हैं, वैतरणी नदी में डाले जाते हैं, बरछों एवं भालों से छिन्न-भिन्न किए जाते हैं, परशु से फाड़े जाते हैं। इस प्रकार, नरक की वेदनाओं को तुमने अनन्त बार भोगा है, उसका अनुचिन्तन करो। उसके सामने यह कष्ट तो अत्यल्प है- ऐसा विचार करो। इसी प्रकार, तुम्हें तिर्यंचगति में भी उत्पन्न होना पड़ा है, वहां भी तुम्हें ताड़न, तर्जन, त्रासन, बंधन, मारना-पीटना, सर्दी-गर्मी, क्षुधा-तृष्णा आदि की अनन्त वेदना को अनन्त बार सहन करना पड़ा है, उसका भी चिन्तन कर सके सामने यह दुःख कितना कम है- ऐसा विचार करो। इसी प्रकार, मनुष्य-जन्म में भी कर्म के वशीभूत होकर हजारों घरों में जन्म लेकर अनेक दुःखों को प्राप्त किया है, उन सबका भी चिन्तन करो। प्रिय-वियोग के दःख को एवं अनिष्ट संयोगरूपी दःख को तमने अनेक बार सहन किया वहां तुमने जो मानसिक व शारीरिक-दुःख भोगे हैं, नौकर बनकर कभी कडुए, कठोर, असभ्य वचनों से तिरस्कार को प्राप्त हुए हो, मनुष्य-जन्म को पाकर भी दीनता से दुःखित हुए हो, चिन्ता-शोकरूपी अग्नि से जलने के कारण जो घोर दुःख प्राप्त किए हैं, क्रोधाग्नि से प्रज्ज्वलित मन के कारण पराए द्वारा शोषित किए जाने पर घोर दुःख को प्राप्त हुए हो, धन के हरणं होने पर, अथवा पुत्र की धृष्टता से दुःखित होकर कितना दुःख सहन किया है, कारागृह में गए हो, वहां विविध मर्दन, पीसनादि दःख कर्ण, ओष्ठ, शीश, नासा. जिहवा, हाथ-पांव आदि के छेदन-भेदन, आंखे निकालना, दांत एवं हड्डियों को तोड़ने की पीड़ा तथा अग्नि, जल, व्याल-विषधर-विष, गर्मी, प्यास व भूख के कष्ट को सहन किया है, मनुष्य-भव में जो शारीरिक व मानसिक-दुःख अनन्त बार प्राप्त किए हैं, हे धीर ! तुम उन सबका भी चिन्तन करो। यह कष्ट तो क्षणिक है। देवलोक में देवता श्रेष्ठ आभूषणों से भूषित होकर अति सुखों का अनुभव करते हुए समय व्यतीत करते हैं, तो वे भी मृत्युकाल को जानकर महा दुःखी होते हैं। उनको भी च्यवन अर्थात् मृत्यु का दुःख सहना होता है तथा एक देवता दूसरे देवता की समृद्धि को देखकर ईर्ष्या से भी जलता है। देवता शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, नाट्यादि सुखों का अनुभव करते हुए भी भावी जीवन में . गर्भ-दुःख को देखकर संतप्त होते हैं। देवता अपनी आयुष्य के मात्र छ: मास शेष रहने पर मरण-भय से आक्रान्त होकर कंपित शरीर वाले हो जाते हैं, तब उन्हें भवन के शयन-कक्ष तथा क्रीड़ा-स्थलों में भी रति (रुचि) नहीं होती है। उनकी पुष्पमाला भी उनको शोभाविहीन लगती है। इस प्रकार, देवों को भी भारी दुःख होता है, अतः उनकी (देवलोक के सुखों की) असारता का चिन्तन कर। इस प्रकार, चतुर्गति में ये जो अनेक दुःख तूने प्राप्त किए हैं, तेरा यह दुःख उसका अनंतवां भाग भी नहीं है। तेरे द्वारा संख्यात-असंख्यातकाल तक ये दःख सहन किए गए फिर अल्प दुःख से तू क्यों दुखित हो रहा है। इस प्रकार, चारों गति में तूने जो अनेक दुःख प्राप्त किए हैं, तेरे यह दुःख उसका अनंतवां भाग भी नहीं है। तेरे द्वारा अनन्तकाल से अनेक दुःख सहन किए गए, फिर इस अल्प दुःख से क्यों व्यथित बना हुआ है। तुझे संसार में अनन्त बार ऐसी भूख लगी, जिसे तृप्त करने में सभी पुदगल भी समर्थ नहीं थे। तेरे द्वारा परवशता से अनेक बार क्षुधा, पिपासा
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