Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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यह शोध-प्रबंध समाधिमरण की इसी अवधारणा को प्राचीन आचार्य विरचित आराधना-पताका के सन्दर्भ में समालोचनात्मक अध्ययन को समर्पित है। प्रस्तुत प्रबन्ध में इस अध्ययन के साथ-साथ समाधिमरण एवं इतर-इच्छामृत्युओं, जैसे- आत्महत्या, दयामृत्यु, सम्मानमृत्यु आदि की उपादेयता-अनुपादेयता का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया जाएगा।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किस प्रकार की मृत्यु को समाधिमरण कहा जा सकता है ? यह किस प्रकार अन्य प्रकार की इच्छामृत्युओं से भिन्न है ? संस्तारक-प्रकीर्णक में कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति, जिसका शरीर, मस्तिष्क और वचन-शक्ति शिथिल हो गए हों, जो राग और द्वेष से ऊपर उठ चुका हो, जो माया, मिथ्या एवं निदानशल्य से मुक्त हो, जिसने क्रोध, मान, माया और लोभरूपी चार महाकषायों को विजित कर लिया हो, जो चार प्रकार की विकथाएं (भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, स्त्रीकथा) ना करता हो, जो पांच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और असंग्रह) का दृढ़ता से पालन करता हो, जो पंच समितियों, त्रिगुप्तियों का पालक हो, जो षटजीवनिकाय का रक्षक हो, जो सप्तभयों से अभय हो, जिसमें आठ प्रकार के मद अपना सर न उठाते हों, जो नववाड़ों सहित ब्रह्मचर्य का पालन करता हो, जो दस मुनिधर्मों का पालक हो तथा जो असाधु लोगों की संगत से बचता हो, वही समाधिमरण हेतु संस्तारक पर सफलतापूर्वक आरूढ़ हो सकता है। इसके विपरीत, जो अभिमानी हो, जो अपने दोषों का गरु के सम्मख प्रायश्चित्त न करता हो तथा जो शिथिलाचारी हो, ऐसे व्यक्ति का संस्तारक पर आरूढ़ होना व्यर्थ है, क्योंकि उसे इस आराधना का सम्यक् फल प्राप्त नहीं होता है।
आगम ग्रन्थों में मरण और समाधिमरण -आध्यात्मिक-साधनापरक महत्व को देखते हुए जैन-आगम व आगमेतर ग्रन्थों में इस विषय को प्रमुख स्थान मिला है। जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा के आचारांग, समवायांग, उत्तराध्ययनसूत्र व अनेक प्रकीर्णक-ग्रन्थों में समाधिमरण-विषयक विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, वहीं दिगम्बर-परम्परा में भी भगवती-आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त परवर्तीकालीन अनेक ग्रन्थों में भी मरण के प्रकारों एवं समाधिपूर्वक मरण की प्रक्रिया का निर्देशन एवं उसके महत्व का प्रतिपादन किया गया
है।
जन्म एवं मृत्यु के इस चक्र को स्पष्ट करते हुए आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन' में ही कहा गया है कि संसार में अनेक प्राणी हैं, जो यह नहीं जानते कि मैं कौन हूँ और कहाँ से आकर मैंने यहाँ जन्म लिया है ? जन्म एवं मृत्यु की इस श्रृंखला में व्यक्ति न तो अपने पूर्व जीवन को जानता है और न ही आगे आने वाले जीवन के सम्बन्ध में उसे कोई बोध होता है, किन्तु जन्म और मरण की यह प्रक्रिया पुनर्जन्म की अवधारणा के साथ जुड़ी हुई है। इसे स्वीकार किए बिना जीवन और मृत्यु के इस चक्र को नहीं समझा जा सकता।
जैनदर्शन की मान्यता है कि जो आत्मा की परिणामी-नित्यता और पुनर्जन्म को स्वीकार करता है, वही लोक के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है, क्योंकि पुनर्जन्म लोक या संसार की अवधारणा के आधार पर टिका हुआ है। आचारांगसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि जो आत्मवादी होता है, वही लोकवादी होता है और जो लोकवादी होता है, वही कर्मवादी होता है, वही क्रियावादी होता है।
'आचरांगसूत्र , 1/1/1
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