Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
संलेखना के पांच अतिचार इस प्रकार हैं - (1) इहलोक-आशंसा-प्रयोग- ऐहिक-सुखों की कामना करना। धर्म के प्रभाव से इहलोक सम्बन्धी राजऋद्धि आदि की प्राप्ति हो- ऐसी इच्छा करना, जैसे- मैं मरकर राजा या समृद्धिशाली बनूं। (2) परलोक-आशंसा–प्रयोग- पारलौकिक-सुखों की कामना करना, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् देव-देवेन्द्र आदि के पद एवं सुखों की कामना करना। (3) जीवित-आशंसा-प्रयोग- जीवन जीने की आकांक्षा करना, जैसे- कीर्ति आदि अन्य कारणों के वशीभूत होकर सुखी अवस्था में अधिक जीने की इच्छा करना। (4) मरण-आशंसा-प्रयोग- मृत्यु की आकांक्षा करना, जैसे- जीवन में शारीरिक-प्रतिकूलता में, भूख-प्यास या अन्य दुःख आने पर मृत्यु की इच्छा करना आदि। (5) काम-भोग-आशंसा-प्रयोग-इन्द्रियजन्य विषय-भोगों की आकांक्षा करना ।
आराधना के स्वरूप को जानने वाले क्षपक द्वारा संलेखना-आराधना में विघ्न पैदा करने वाले इन पांच अतिचारों का त्याग करना चाहिए। 16. बारह शुभ-भावना-अनुशिष्टि-प्रतिद्वार -(गाथा 729-745)
इस द्वार में निर्यापकाचार्य क्षपक-साधक को बारह भावनओं के बारे में समझाते हुए कहते हैं- इन बारह भावनाओं का चिन्तन करने से संवेग (वैराग्य) प्रकट होता है, इन बारह भावनाओं का चिन्तन करो। 1- अनित्य-भावना- आराधना-पताका में संसार की सभी वस्तुओं की अनित्यता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि संसार के सभी पदार्थों की अस्थिरता एवं क्षणभंगुरता का वैराग्यपरक चिन्तन ही अनित्य भावना है, यौवन बिजली के समान अस्थिर है, जीवन पानी के बुलबुले के समान शीघ्र नष्ट होने वाला है, इस तरह शारीरिक-रूप आदि भी स्थाई नहीं हैं, वैभव, इन्द्रियां , रूप, यौवन, बल, आरोग्य आदि सभी इन्द्रधनुष के समान क्षणिक हैं, अतः आसक्ति का त्याग करना चाहिए। पत्नी, पुत्र, मित्र एवं स्वजनों के साथ जो संजोग है, उसका वियोग निश्चित है- इस तरह अनित्यता को जानकर जो उत्तम पुरुष धर्म के क्षेत्र में आगे उद्यत रहता है, वही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। 2- अशरण-भावना- व्यक्ति को मृत्यु के मुख से बचाने में कोई भी समर्थ नहीं है। वीतराग परमात्मा ही शरणभूत हैं, इनको छोड़कर जन्म, जरा, उद्वेग, शोक, दुःख और व्याधियों से ग्रस्त इस भयंकर संसार-अटवी में प्राणियों के लिए कोई भी शरण नहीं है। माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र, मित्र, धन, सम्पत्ति- इनमें से कोई भी रोग से पीड़ित मनुष्य को (रोग शान्त करने में ) अल्प शरण देने में भी समर्थ नहीं है। कर्मो का भोक्ता प्राणी स्वयं ही है, बन्धु, बान्धव, शरणभूत नहीं हैं। एकमात्र धर्म ही सत्य एवं शाश्वत् है, अन्य सभी शरण असत्य एवं अशरणभूत हैं। 3- संसार-भावना-संसार की असारता का चिन्तन करना ही संसार-भावना है। इस संसार में जो वीतराग परमात्मा की आज्ञा को शिरोधार्य नहीं करता है, वह मोहरूपी जाल में फंसकर पराभव को प्राप्त करता है और चतुर्गति में भ्रमण करता हुआ बार-बार जन्म-मरण करता है। जीव अपने बन्धु-बान्धव , मित्र-पुत्र, धन-वैभव, भोग-विलास के साधनों आदि का विनाश होने पर एवं शरीर में मेगादि होने पर दुःखी होता है, बुढ़ापा आने पर भी दुःखी होता है, समाधिमरण की दृष्टि से देखा जाए, तो साधना के क्षेत्र में संसार-भावना की उपयोगिता यही है कि इसके चिन्तन द्वारा व्यक्ति संसारजनित तृष्णा को त्यागकर भव-परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त करे।
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