Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
1. व्याविद्ध- सूत्रों को या पाठ अर्थों को आगे-पीछे किया हो, 2. वच्चोमेलियं - शून्यचित्त से पढ़ा हो, 3. हीणक्खरं- अक्षर छोड़कर पढ़ा हो- एक सूत्र का पाठ दूसरे सूत्र से मिलाया हो, 4. अच्चक्खरं- अधिकाक्षर जोड़ा हो, 5. पयहणं- पदों को छोड़कर पढ़ा हो, 6. विणयहीणं- शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय नहीं किया हो, 7. योग-जोगहीणं- सजगतापूर्वक नहीं पढ़ा हो, 8. घोषहीणं - सम्यक उच्चारण सहित न पढ़ा हो, 9. सठ्ठहीणं- अधिक ग्रहण की योग्यता रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, 10. दुट्टुपडिछिन्नं - दुष्प्रतिच्छित वाचनाचार्य द्वारा दिए गए पाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, 11. अकाले कओ सज्झाओ - कालिक - उत्कालिक सूत्रों को निषिद्ध समय में पढ़ा हो, 12. काले न कओ सज्झाओ- स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय नहीं किया हो, 13. असज्झाए सज्झाइयं- अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय किया हो, 14. सज्झाए न सज्झाइयं- स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न किया हो।
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प्रस्तुत कृति के पच्चीसवें कायोत्सर्ग -द्वार (गाथा 514 - 519 ) में यह कहा गया है कि क्षपक आशातना व प्रत्येकाशातना का प्रतिक्रमण करके अब क्षपक अनशन-आराधना के लिए विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करता है। गुरु के चरण-कमल में नमन करके क्षपक इस प्रकार विनती करता हैभगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं भक्तपरिज्ञा करता हूँ। इस प्रकार, क्षपक का दृढ़ निश्चय जानकर वह (गुरु) संघ को विनम्र विनन्ती करके कहता है- जैसी तुम्हारी इच्छा।" ऐसा कहकर सुगुरु संघक्षपक युगल को उठाता है, तब संघ, क्षपक व गुरु भी कायोत्सर्ग करते हैं । क्षपक के समाधिमरण सम्बन्धी निश्चय को जानकर गुरु क्षपक को कायोत्सर्ग करने की अनुमति देते है, साथ ही वे उपस्थित संघ सहित क्षपक की आराधना बिना किसी उपसर्ग के शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो, इस हेतु कायोत्सर्ग करते हैं। यह कायोत्सर्ग पच्चीस श्वासोच्छ्वास का होता है। इसमें चार नमस्कार महामंत्र अथवा चतुर्विंशतिस्तव का पाठ किया जाता है
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प्रस्तुत कृति के छब्बीसवें शक्रस्तव - द्वार (गाथा 520-521 ) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि अब क्षपक कायोत्सर्ग - विधि को पूर्ण करके, पूर्व दिशा की तरफ मुख करके, पद्मासन में स्थिर होकर वैराग्यपूरित, हर्षयुक्त वाणी से संघ के सम्मुख शक्रस्तव का नमोऽत्थुणं से संपत्ताणं तक पाठ करता है।
प्रस्तुत कृति के सत्ताईसवें पापस्थान त्याग-द्वार (गाथा 522-539 ) में क्षपक कहता है- अब मैं सम्यक् रूप से अठारह पापों का परित्याग करता हूँ। यह कहकर गुरु के चरणों में नमन करके क्षपक पुनः कहता है- मैं जीवन - पर्यन्त के लिए सभी प्रकार से जीवहिंसा आदि पापस्थानों का त्याग करता हूँ। फिर, यह क्षपक क्रमशः अठारह पाप-स्थानों के त्याग का कथन करता है। वे अठारह पाप-स्थान इस प्रकार हैं
1. प्राणातिपात 2. मृषावाद 3. अदत्तादान 4. मैथुन 5. परिग्रह 6. क्रोध 7. मान 8. माया 9. लोभ 10.
11. द्वेष 12. कलह 13. अभ्याख्यान 14. रति - अरति 15 पैशून्य 16. परपरिवाद 17. मायामृषावाद और 18. मिथ्यादर्शनशल्य |
इन अठारह पाप-स्थानों का सेवन करने से किन व्यक्तियों को किस प्रकार की हानि हुई, या इनके त्याग करने से किन्हें लाभ हुआ, तत्सम्बन्धी नाम-निर्देश हुआ है, जो निम्नानुसार है1. हिंसा के सम्बन्ध में दमक एवं श्रावक - सुत का आख्यान है।
असत्य भाषण में वसु एवं श्यामार्य के कथानक प्रसिद्ध हैं।
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