Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
चतुरिन्द्रिय की मूढ़ता के कारण इष्ट व अनिष्ट रूपों में राग व द्वेष किया, उसका त्रिविध त्याग करता हूँ। प्रगाढ़, घ्राण-आसक्ति के कारण मेरे द्वारा पूर्व में गन्धोन्मत्त, कस्तूरी मृग आदि प्राणियों का वध किया या कराया गया हो, तो इसके लिए मन, वचन और काया से क्षमा मांगता हूँ। रसनेन्द्रिय की मूर्छा के कारण यदि अगणित मत्स्य, मृगादि का वध किया हो, तो उन सबसे अब भव भय से मन, वचन और काया से क्षमा याचना करता हूँ।
स्पर्शनेन्द्रिय के वश में होकर मेरे द्वारा परयुवती के अवलोकन तथा संग द्वारा जो त्रिविध पापकर्म अर्जित किए गए, उनकी मैं निन्दा करता हूँ।
मिथ्यात्वभाव से मेरे द्वारा यज्ञों में जिन जीवों का वध किया गया, उनसे मैं क्षमायाचना करता हूँ।
परवशता से मेरे द्वारा जो झूठे दोषारोपण किए गए, चुगली की गई तथा दूसरों को ठगने के लिए मेरे द्वारा हर्षित होकर जो कार्य किए गए, उनकी मैं निन्दा करता हूँ। मेरे द्वारा बालघात, स्त्रीघात, अनाथघात, गर्भपात, ऋषिघात, विश्वासघात के कार्य किए गए हों, तो उनकी मैं सर्वथा निन्दा करता हूँ।
आर्यक्षेत्र में भी खटीक (कसाई), मछुआरा, व्याघ्र डोब आदि मिथ्यात्वग्रस्त पाप-जातियों में जन्म लेकर जो जीव मारे, उनके लिए क्षमा मांगता हूँ।
मैंने अज्ञानतावश जंगल जलाएं हों, गांव जलाए हों, तालाबों का शोषण किया हो, तो उसके लिए मैं क्षमा याचना करता हूँ| वशीकरण आदि मन्त्र-तन्त्रादि योगों द्वारा शाकिनी, योगिनी, भूत-पिशाच निग्रह करने तथा कौतुकादि कों द्वारा जो जीव दुःखित हुए, उन सबके प्रति समभाव धारण करता हूँ। महारम्भ करते हुए जलयात्रा में व स्थूल-कर्मादान में वर्तन करते हुए मेरे द्वारा जो जीव वध किए गए, उनसे क्षमायाचना करता हूँ। जाने-अनजाने में, रागद्वेष से, अथवा मोह से जिन जीवों को दुःखी किया, वे सब मुझे क्षमा करें।
इस भव में या परभव में क्रोध, मान, माया, लोभ से, मन, वचन, काया से, हास्य, भय, शोक से या दुष्टकर्म से, आलस्य से किन्हीं जीवों का उपहास किया गया हो, उनकी तर्जना अथवा अवज्ञा की हो, तो मैं वैराणुबन्ध से अलग होकर मैत्रीभाव से क्षमायाचना करता हूँ।
मैंने अनेकों को रणभमि में मारा. अनेकों को सजा दी. अनेकों को मारा, आखेट में वध किए अन्यों को भी स्वर्ग ग्रहण कराया, अनेकों को दुर्वचन कहे, अन्यों को कुम्भीपाक में गिराया, अनेकों को कारागार में लूंसा, अनेकों को समाज में अपमानित किया, अनेकों के पैरों में बेड़ियां डलवाई, अथवा सांकल से बंधवाया, किसी को धूर्तता से मरवाया, किसी पर नखों से आक्रमण करवाया, किसी को पेड़ से बांधा, किसी को गड्ढे में गाड़ दिया, किसी की दोनों आंखें निकलवा ली, कान कटवा दिए व दांत भी गिरवा दिए, किसी के होंठ कटवा दिए, किसी को उद्वेलित किया, परितप्त किया, तृषित किया, उन सभी से मैं मन, वचन और काया से क्षमायाचना करता हूँ। भवनपतियों के मध्य असुर आदि दस भेदों में उत्पन्न जो भी जीव दुःखित किए, उनसे क्षमा याचना करता हूँ।
वनचरों के सोलह भेदों में उत्पन्न होकर जिन जीवों को खेल-खेल में निहत किया, वे दुष्कृ त मिथ्या हों।
दस प्रकार के मुंभक देवों में उत्पन्न होकर मूढ़तावश अशुभ चित्त से जिन कर्मों को अर्जित किया, उनकी मैं निन्दा करता हूँ।
ज्योतिष-देवों में उत्पन्न होकर जिन जीवों की विराधना की, उन सबसे क्षमा याचना करता हूँ। वैमानिक-देवत्व पाकर राग-द्वेषवश मेरे द्वारा जो भी जीव कंगाल बनाए गए, उन सबसे क्षमा
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