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'जैन दर्शन में सप्तभंगीवाद'
अशोक कुमार जैन एम० ए०, शास्त्री
इस भारत भूमि में विश्व के सम्बन्ध से सत्, अमत्, कथन किया है उनमें से एक स्थल पर उन्होंने प्रवचनसार उभय और अनुमय ये चा पक्ष वैदिककाल से ही विचार- का क्रम अपनाया है, दूसरे स्थल पर पंचास्तिकाय का क्रम कोटि में रहे हैं । 'सदैव सौम्येदमग्र आसीत्' (छान्दो०६।२) अपनाया है।' 'असदेवेदमन आसीत्' (छन्दो० ३१६१) इत्यादि वाक्य दोनों जैन सम्प्रदायो मे दोनों ही क्रम प्रचलित रहे हैं। जयत के सम्बन्ध मे सत् और असत् रूप मे परस्पर विरोधी सभाष्य तत्वार्थाधिगम (अ० २३६) सूत्र और विशेषादो कल्पनाओं को स्पष्ट उपस्थित कर रहे हैं तो वही सत् वश्यकभाष्य (गा० २२२३) मे प्रथम क्रम अपनाया है किंतु
और असत् इस उभयरूपता तथा इन सबसे परे वचन- आप्तमीमांसा (का० ६४) तत्वार्थ श्लोक वार्तिक(पृ.१२८) गोचर तत्व का प्रतिपादन करने वाले पक्ष भी मौजूद थे। प्रमेयकमल मार्तण्ड (पृ०६८२) प्रमाणनयतत्वालोकालंकार बुद्ध के अव्याकृतवाद और संजय के अज्ञानवाद मे इन्ही (परि०४ सूत्र १७-१८) स्यावाद मञ्जरी (पृ० १८६) चार पक्षों के दर्शन होते हैं। उस समय का वातावरण ही सप्तभगीतरंगिणी (पृ. २) और नयोपदेश (पृ०१२) में ऐसा था कि प्रत्येक वस्तु का स्वरूप 'सत् असत् उभय दूसरा क्रम अपनाया गया है । इस तरह दार्शनिक क्षेत्र में और अनुभय' इन चार कोटियो से विचारा जाता था। दूसरा ही क्रम प्रचलित रहा है अर्थात अस्ति-नास्ति को भगवान महावीर ने अपनी विशाल और उदार तत्वदृष्टि तीमरा और अवक्तव्य को चतुर्थभङ्ग ही माना है। विधि से वस्तु के विराट रूप को देखा और बताया कि वस्तु के और प्रतिषेध की कल्पना मूलक सात भंग इस प्रकार हैअनन्त धर्ममयस्वरूप सागर में ये चार कोटियां तो क्या १. विधि कल्पना, २. प्रतिषेध कल्पना, ३. क्रम से विधि ऐसी अनन्त कोटियां लहरा रही हैं।' यह कहना ठीक नहीं प्रतिषेध कल्पना, ४. युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ५. है कि शब्द धान रूप से विधि का ही कथन करता है विधि कल्पना और युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ६. प्रति क्योंकि ऐसा कहने पर शब्द से निषेध का ज्ञान नही हो धकल्पना और युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ७. क्रम सकेगा । शायद कहा जाये कि शब्द गौण रूप से निषेध को और युगपद् विधिप्रतिषेध कल्पना । । भी कहता है किन्तु ऐसा कहना भी निःसार है क्योंकि श्रुतज्ञान के दो उपयोग है, एक स्याद्वाद और दूसरा सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा प्रधान रूप से जिसका कथन नही नय। प्रमाण सकलदेश रूप होता है और नय विकलाकिया जाता उसका गौण रूप से कथन करना सम्भव नही देश । ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण है।' विधि और निषेध के विकल्प से अर्थ में शब्दों की और जब विकलादेशी होते हैं तब नय कहे जाते है। इस प्रवृति सात प्रकार की होती है, उसे ही सप्तभङ्गीं कहते तरह सप्तभंगी भी प्रमाण सप्तभगी और नय सप्तभंगी के हैं। सबसे प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथों में सातभङ्गों रूप में विभाजित हो जाती हैं । सकलादेश में प्रत्येक धर्म का नामोल्लेख मात्र मिलता है उनमे से प्रवचनसार में की अपेक्षा सप्तभंगी होती है। १. स्यात् अस्त्येव जीवः, स्थात अवक्तव्य को तीसरा भंग रखा है और स्यादस्ति- २. स्यात् नास्त्येव जीवः, ३. स्यात् अवक्तव्य एव जीवः, नास्ति को चतुर्षभंग रखा है। किन्तु पञ्चास्तिकाय में ४. स्यादस्ति च नास्ति च, ५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यअस्तिनास्ति को तीसरा और अवक्तव्य को चतुर्थ भंग रखा श्च, ६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च, ७. स्यात् अस्ति है। इसी तरह अकलरुदेव ने दो स्थलों पर सप्तभंगी का नास्ति व अवक्तव्यश्च । विकलादेश में भी सप्तमंगी