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पाचार्य नेमिनार का यह जीव का अष्टम विशेषण है-सिद्ध, तदनुसार सिद्ध हैं। क्योंकि ये विद्यमान (अस्ति) हैं और शरीर के परमेष्ठी ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों से रहित मोर समान बहुप्रवेशी हैं । अत: इनका पस्तिकाय नाम सम्यक्त्वादि पाठ गुणों से युक्त तथा प्रतिम शरीर के सार्थक है। जीव, घमं मोर अधर्म इन तीन द्रव्यों में परिमाण से किचित् न्यून पाकार वाले होते हैं।
पसंख्यात प्रवेश हैं। पाकाण मे अनन्त प्रदेश है। जीव का नबम विशेषण है-उर्ध्वगमन स्वभावः पुद्गल तीनों (संख्यात, असंख्यात भोर अनन्त) प्रकार तदनुसार सिद्ध (जीव) उध्वंगमन स्वभाव के कारण लोक के प्रदेशों वाले है। काल का एक ही प्रदेश है, प्रतः के अग्र भाग में स्थित हैं नित्य है और उत्पाद व्यय से काल को काय नहीं कहा गया है। एक प्रदेशी परमाणु युक्त है।
भी अनेक व स्काष रूप बहुप्रदेशी हो सकता है, प्रतः इस प्रकार जीव द्रव्य का विवेचन करने के पश्चात् पुद्गल परमाणु को भी उपचार से काय कहा है । जितना प्रारम्भिक प्रतिज्ञानुसार जीव के प्रतिपक्षी मजीव द्रव्य का प्राकाश प्रविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है वह सब विवेचन करते हए कहा है कि मजीव द्रब्य -पुदगल, धर्म, परमाणु को स्थान देने में समर्थ प्रदेश है। मधर्म, प्राकाश पौर काल के भेद से पांच प्रकार का है। इस प्रकार छहाव्यों के प्रदेशों की चर्चा करने के इनमे रूप, रस, गन्ध मोर स्पर्श का धारक पुद्गल द्रव्य पश्चात् बतलाया है कि पूर्वोक्त जीव भोर अजीव द्रव्य मूर्तिमान् है और शेष चारों द्रव्य प्रमूर्तिक । पुदगल द्रव्य- कथंचित् परिणामी है, प्रतः जीव मोर पुदगल की सयोग बाब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत परिणति से बने पर्याय रूप पासव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पोर प्रातप इन पर्यायो वाला है। धर्मद्रव्य गमन में मोक्ष, पुण्य और पाप ये सब नव पवार्य है। मानव के परिणत पुदगल और जीवों को गमन मे सरकारी है। दो भेद हैं-भावानव मौर व्रव्याखव। मात्मा के जिस जैसे मछलियों के गमन मे जल सहकारी है। गमन न करते परिणाम से कर्म का प्रास्रव होता है वह भावानव है और हुए पुद्मलो प्रथवा जीवों को धर्मद्रव्य गमन नही कराता जो ज्ञानावरणादि रूप कर्मों का पात्र है वह द्रव्यानव है । अधर्मद्रव्य ठहरते हए पुदगल अथवा जीवों को ठहराने है। भावास्रव के मिथ्यात्व, मविरति, प्रमाद, योग पौर में सहकारी है। ठीक इसी प्रकार जैसे छाया यात्रियो को क्रोधादि कषाय रूप पांच भेद हैं, जिनके क्रमशः पाच, ठहरने मे सहकारी है। गमन करते हुए पुदगल अपवा पांच पन्द्रह, तीन और चार भेद है। द्रव्यास्रव भनेक भेदों जीवों को प्रधर्मद्रव्य नही ठहता है। प्राकाशवध्य-जीव वाला है। बम्ध दो प्रकार का है-भावबन्ध पौर द्रध्य मादि शेष द्रव्यों को अवकाश देने वाला है। यह बन्ध । जिस चेतनाभाव से कम बन्यता है वह भावबन्ध दो प्रकार का है । जितने प्राकाश मे जीव, पुदल, है और कर्म तथा पात्म-प्रदेशों का परस्पर मिलना दम्य धर्म, अधर्म और काल ये शेष पाँच द्रव्य पाये बन्ध है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग पौर प्रवेश के भेदों जाते है वह लोकाकाश है और लोकाकाश के बाहर से बन्ध चार प्रकार का है। योगों से प्रकृति और प्रदेश मलोकाकाश है। कालद्रव्य दो प्रकार का है-व्यवहार बम्ब होते है तथा कषायों से स्थिति और अनुभाग काल प्रोर निश्चयकाल । जो द्रव्यों के परिवर्तन में बन्ध । संवर दो प्रकार का है-द्रव्य संवर और भावसहायक, परिणामादि लक्षण वाला है वह व्यवहार काल है सवर । मात्मा का जो परिणाम कर्म के मानव को रोकने पौर जो वर्तना लक्षण वाला है वह निश्चय काल है। में कारण है वह भाव संवर है और द्रव्य-मानव का रुकना निश्चयकाल लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नराशि द्रव्य संबर है। पांच व्रत पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश की तरह परस्पर भिन्न होकर स्थित है। वे कालाण धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह मोर भनेक भेदों वाला मसंख्यात द्रव्य हैं।
चारित्र ये सब भाव संबर के भेद हैं। निर्जरा के दो भेद उपयुक्त जिन जीवादि द्रव्यों की चर्चा की गई है, हैं-भावनिर्जरा पौर द्रव्यनिर्जरा।मात्मा के जिस उनमें काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य मस्तिकाय परिणाम से उदयकाल में अथवा तप द्वारा फल देकर को