Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ प्राचार्य मिव और उनका प्रम्प संग्रह जोबादि पाण्यों का विवेचन उनके दुष्य का जीवन्त एवं समोचोन प्रतीत होता है कि लघु पोर बहद् ये प्रतीक है। इसके टीकाकार ब्रह्मदेव ने अपनी टोका में विशेषण भी ब्रह्मदेव द्वारा लगाये गये है। उनके पूर्व इन विभिन्न स्थानों पर गाथामो को सूत्र कह कर उल्लिखित विशेषणो का समायोजन अन्यत्र दृष्टिगत नही होता है, किया है। साथ ही उनके प्रति अपनी घनीभूत श्रद्धा को पतः मूल मे तो २६ गाथाम्रो बाले ग्रन्थ का नाम प्रकट करते.एनेकों स्थलों पर उन्हे भगवान् कह कर "पयस्थलक्खण" है और ५८ गाथाम्रो वाले प्रन्थ का नाम संबोधित किस।' "द्रव्यसंग्रह"। यह बात अलग है कि श्री ब्रह्मदेव द्वारा लाप संग्रहहनग्य संवह नामकरण : लघु और बृहद् विशेषण लगाने के पश्चात् उक्त दोनो ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका से शात होता है कि प्राचार्य ग्रन्थों को लघुद्रव्यसंग्रह नाम से प्रसिद्धि मिली है। मे मिचन्द्र ने सर्वप्रथम २६ गाथानों वाले लषद्रव्य संग्रह की रचना की थी। इसकी अंतिम गाथा इस प्रकार है लघद्रय संग्रह : उपलब्ध लघुसग्रह में कुल २५ गाथाएं पाई जाती हैं। सोमच्छलेन रह्या पयस्थलक्खणकराउ गहाम्रो। जबकि ब्रह्मदेव की टीका के अनुसार २६ गाथायें होनी भवदयारणिमित्त पणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥' चाहिए। प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने इसकी एक इस गापा से तीन विशेष बातो पर प्रकाश पड़ता है१. इस प्रभ्य की रचना सोम नामक श्रेष्ठी के निमित्त HTRोनिमित गाथा छूट जाने की संभावना प्रकट की है।' की गई थी। इस लघुद्रव्य संग्रह मे सर्वप्रथम विषय निर्देश के २. इस ग्रन्थ का नाम "पयस्थलक्षण" है। पश्चात् षड द्रव्यों का उल्लेख करके काल को छोड़कर ३. इस प्रस्थ के रचयिता श्री नेमिचन्द्र गणि है। शेष पांच द्रव्यों को वहप्रदेशी होने के कारण प्रस्तिकाय उपर्युक्त गाषा ब्रह्मदेव कृत सस्कृत टोका को कहा है। पून: जीवादि सप्त तत्त्वो मे पुण्य-पाप का समाउस्थानिका का एक प्रमुख प्राधार है जिसे ब्रह्मदेव ने अन्य वेश कर नौ पदार्थों का उल्लेख है । इसी क्रम मे जीव का जानकारी के साथ विस्तारपूर्वक लिखा है। नामकरण के लक्षण, मूतिक पुद्गलद्रका के छ: भेद, धर्म, अधर्म, पाकाश संबंध में मात्र इतना कहना ही पर्याप्त है कि "दब्ब. और काल का स्वरूप बतलाते हए जीवादि द्रव्यों के प्रदेशो सगहामण" इत्यादि गाथा हा "द्रव्य सग्रह" "इस नाम क का उल्लेख किया है। पूनः जीवादि सप्त पदाथों का मूल में हेतु है। डा. दरबारीलाल कोठिया ने लिखा है स्वरूप बतलाते हए शुभाशुभ प्रकृतियों, सर्व द्रव्यों का कि द्रव्य संग्रह नाम की कल्पना ग्रन्धकार को अपनी पूर्व उत्पाद, व्यय, प्रौव्यपना, कर्मों के नाश करने हेतु काय रचना के बाद इस द्रव्यसंग्रह को रचते समय उत्पन्न हुई को निश्चल और मन को स्थिर करके रागद्वेष को त्यागन है और इसके रचे जाने तथा उसे द्रव्यसग्रह नाम दे देने का निर्देश तथा प्रात्मध्यानपूर्वक सुख प्राप्ति के उपाय का के उपरान्त पदार्थलक्षण (पयत्यलक्खण) कारिणी गाथाम्रो विवेचन किया है। अन्त मे मोह रूपी हाथी के लिए केशरी को भी प्रन्यकार अथवा दूसरो के द्वारा लघुव्यसग्रह नाम के समान साधुनों को नमस्कार करके अपने नामोल्लेखदिया गया है।"डा. कोठिया के उक्त कथन के सदर्भ मे पूर्वक कहा गया है कि सोमश्रेष्ठो के बहाने से भव्य-जीवो मात्र इतना ही कहना अपेक्षित प्रतीत होता है कि इतनी के उपकारार्थ इस “पयत्थ-लक्खण" नामक ग्रन्थ की रचना क्लिष्ट कल्पना की अपेक्षा यह मानना अधिक स्वाभाविक को है। १.(क) "भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति ॥ १८१ एवं १९२ भी अष्टव्य है। बृहद्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, पृष्ठ ३ २. लद्रव्य संग्रह, गाथा २५ । (ख) "भगवतां श्री नेमिचन्द्रसिदान्तदेवानाभिति।" । -यहन्तव्य संग्रह ब्रह्मदेव टीका ४६ ३. द्रव्य संग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ २०.२।। इसके लिए उपयुक्त टीका के पृष्ठ ८५, १३७, ४. द्रव्य संग्रह प्रस्तावना, पृष्ठ २१ ।

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