Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ प्राचार्य नेमिचन्द्र और उनकाव्य संग्रह प्रवचनसारोबार के कर्ता भी नेमिचन्द्रसरि है, जो ईसा इम गाथा के माधार पर सम्मानित किया गया प्रतीत की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् है, किन्तु ये विद्वान होता है। श्वेताम्बर माम्नाय के है। प्रत: इनका द्रव्यम ग्रह में द्रव्यसग्रह को ढंढारी भाषा मे निबद्ध देश-भाषाकोई सम्बन्ध नही है। वचनिका के लेखक पंडितप्रवर जयचंद छाबड़ा ने द्रव्य. प्राचार्य नेमिचया मित्रान्त चक्रवर्ती और मनि नेमिचन्द्र सग्रह को प्राचार्य नेमिचन्द्र मिद्धातचक्रवर्ती की कृति सिडातिदेव : स्वीकार किया है।' थी छाबडा ने मवत् १८६३ मे श्रावण उपर्युक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि गोम्मटसार वदि चोदम के दिन द्रव्यमग्रह को देश-भाषा-वचनिका मादि प्राथों के रचयिता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवर्ती पूर्ण की थी। इस भाषा-वचनिका मे श्री ब्रह्मदेव कृत ईसा की दसवी शताब्दी के सुप्रसिद्ध गगवशीय राजा संस्कृत टीका की छ.या कई स्थलो पर दिखाई देती है। दोनों टीकामो का तुलनात्मक अध्ययन करने में यह बात राचमल्ल के प्रधान सेनापति चामुण्डगय के गुरु थे। उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड को अन्तिम प्रशस्ति' मे स्पष्ट हो जाती है। माग हो द्रव्य सग्रह के विशेष ध्य म्यान को जानने के लिए श्री छाबड़ा ने ब्रह्मदेव कृत गोम्मटराय का अपरनाम चामुण्डराय ममम्मान नेप टीका को देखने का निर्देश किया है। किन्तु सस्कृत किया है तथा जीवकाण्ड की अनिम गाथा' में तो उन्होंने टीकाकार द्वारा विभिन्न स्थलो पर नेमिचन्द्र को मिद्धातिश्री गोम्मटराय के अतिरिक्त अपने गुरु अजित मेन पद देव इम उपाधि में पाल कृत करने पर भी श्री छाबड़ा का दादा-गुरु प्राचार्य मार्यसेन का भी स्मरण किया है। दम ओर ध्यान नही गया। मभवहे गोम्मटसार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती अपने ममय के जैन नमिचन्द्र सिद्धान चक्रवर्ती की प्रति प्रमिद्धि के कारण एवं सिद्धांतों के सुप्रसिद्ध प्रतिनीय वेत्ता थे। उनके नाम के मिद्धातचक्री गिद्धातिदेव इन दोनो विशेषणों में मागे पाई जाने वाली "सिद्धांतचक्रवर्ती" यह उपाधि उक्त एक देश गमानना होने में गोम्मटसार प्रादि पोर द्रव्यकपन की पुष्टि करती है। साथ ही जैसे महाकवि माथ। जय महाकवि मग्रह इन दोनो ग्रन्थो के भिन्न-भिन्न कर्ताग्री की पोर कालिदास को "दीपशिखा कालिदाम", महाकवि माघ को श्रो छाबड़ा न ध्यान न दिया हो। साथ ही दोनो अन्यों "घण्टामाघ" और अमरचन्द्रमूरि को "वेणीकृपाणप्रम" केकीलख : की प्राचीन धारणा उनके उक्त लेखन में कह कर उनके तत्-तत् उल्लेखों वाले प्रति प्रसिद्ध दलोको प्रमख कारण प्रतीत होती है। यहा एक विशेष बात यह कंपाधार पर सम्मानित किया जाता है ठीक उसी प्रकार भी ज्ञातव्य है कि मूलाचार को मत टीका के लेखक प्राचार्य नेमिचन्द्र को गोम्मटसार कर्मकाण्ड की - बसुनन्दि को भी एक स्थान पर वसुनन्दि सिद्धानचक्रवर्ती नहपण य चरको छक्खड साहियं प्रविग्घेण । के नाम ग अभिनगा गया है। लगता है यह भी तह महवपकेण मया छक्कखड साहियं सम्मं ।' ऊपर लिषित कारणों का ही प्रतिफल है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ १४६ । इष्ट... नमस्कार कीया है। २. मोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ६६५-६७२ । त्यसग्रह, देव-भाषा-वचनिका, पृष्ठ ८ ३. गोमम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ७३४। (ग) मागे श्री नमिचन्द्र प्राचार्य सिद्धांतचक्रवति इस प्रन्थि का कर्ता पपना लघतारूप वचन कहे हैं। ४. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ३६७ । -द्रव्यमग्रह, देश-भाषा-बनिका, पृष्ठ ७३ ५. (क) तहां श्री नेमिचन्द्र मिद्धांतचक्रवनि प्राचार्य इम ६. मंवत्सर विक्रम तण अठदश-शतत्रय साठ । ग्रन्थ का कर्ता कह शिष्य को ममभावने के श्रावण वदि चौदस दिवस, पूरण भयोमुपाठ ।। मिसकरि" --द्रव्यमग्रह, देशभाषा-बचनिका, पृष्ठ ७४ -- द्रव्यसग्रह, देश-भाषा-वनिका, पृष्ठ २ ७. मुलाचार, सुनन्दि वृत्ति, पृष्ठ १ । (ख) इहा श्री नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवति मगलक थि ८, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गापा ३६७ ।

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