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कविवर रहधू रचित-सावय चरिउ
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अधिक भागे बढ़ने न पाये। उदाहरणर्थ इस लेख में जिस कौमुदी' का नाम आता है उसीसे परमानन्द जी ने इस रचना का परिचय दिया जा रहा है उसका नाम असावधानी ग्रंथ का नाम सम्यकत्त्वकौमुदी लिख दिया है पर वास्तव से पं. परमानन्द जी ने सावयचरित की जगह सम्यक्त्व में प्रन्थ के प्रारम्भ और प्रत्येक सन्धि के अन्त में 'सावय कौमुदी लिख दिया तो प्रो. राजाराम जैन ने भी इसी के चरिय' ही नाम दिया है। परमानन्दजी के द्वारा उद्धत प्रशस्ति अनुकरण में प्राचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ में प्रकशित अपभ्रश में भी संउमाह के पुत्र कुपराज का उल्लेख है और वास्तव भाषा मन्धिकालीन महाकवि रइथ नामक लेख में भी उस में उन्हीं के लिये इस ग्रन्थ की रचना हुई है। यह ग्रन्थ की भूल की पुनरावृत्ति करदी। मेरे अवलोकन में ऐसी जो प्रत्येक मन्धि के अन्त में दिये हये पद और प्रशस्ति से कतिपय भूल भ्रांतियां आई हैं उनके संबंध में मंक्षिप्त लेख स्पष्ट है । परमानन्द जी ने ग्रन्थ के प्रादि भाग को भी भेजा गया था पर वह डाक की गडबडी में कहीं इधर-उधर त्रुटित होना लिखा है, पता नहीं नागौर की प्रति का प्रथम हो गया अनः फिर कभी प्रकाश डाला जायेगा। प्रस्तुत लेख पत्र म्वण्डित था या उन्होंने नकल नहीं की। अन्तिम प्रशस्ति में उक्त ग्रन्थ में अपूर्ण रूप से प्रकाशित प्रशस्ति नं. १०५ तो उन्हें पूरी उतारने नहीं दी गई इसका उल्लेख तो को पूर्ण रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। चूंकि उन्होंने स्वयं किया है-"प्रस्तुत प्रशस्ति अधूरी है, इसे पं० परमानन्द जी इस अन्य को पूरी ठीक से नहीं देख पाये नागौर के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने पूरी नहीं उतारने दी थी इस लिए उन्होंने ग्रन्थ का नाम सम्यकत्व के मुदी और ग्रंथ प्रस्तावना के पृष्ट १०२ में इस ग्रन्थ के संबंध में उन्होंने रचना की प्रेरणा करने वाले संउ माहु का नाम दिया है, निम्नोक्त विवरण दिया है- “१०६ वी प्रशास्ति' पर ये दोनों ठीक नहीं है। वास्तव में इस ग्रन्थ का नाम सम्यक्त्व कीमुदी की है। इसमें सम्यक्त्व की उत्पादक कथा मावय चरिउ है और प्रेरक संउ माह के पुत्र कुमराज है। ओं का बडा ही रोचक कथन दिया हुआ है. इसे कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की एक प्रति कलकत्ता के म्व. पुरण चन्द्र ग्वालियर के गजा डूगरपिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह के नाहर के मंग्रह में प्राप्त हुई। ५८ पत्रों की यह प्रति मवत् राज्यकाल में रचा है, इसकी प्रादि अन्त प्रशस्ति से मालूम १६१४ की लिम्बी हुई है । ग्रंथ का छठा मन्बा में 'सम्यकत्व होता है कि यह ग्रन्थ गोपाचल वामी गोनालारीय जाति
के भूषण सेउमाहु की प्रेरणा से बनाया है । इसकी ७१ १ सन् १९५४ में जब मैंने श्रीर पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने नागौर का भंडार दग्या, तो उस समय जो
पनामक एक प्रति नागौर के भट्टारकीय ज्ञान भण्डार में ग्रंथ मामने आये, उनका दम्बत हुए सम्यक्रवकौमुदी नाम
मौजूद हे उक्त अपूर्ण प्रशस्ति उमी प्रति पर सं दी गई है। का प्रथ भी मिला जो कवि रइधू की रचना थी। उस
उम ग्रन्थ की पूरी प्रशस्ति वहां के पंचों तथा भट्टारकजी प्रथ का मैं एक पत्र पढने लगा, एक पत्र पं० महन्द्रकुमार जी
ने सन् ४४ में नोट नहीं करने दी थी, इसलिये वह अपूर्ण ने लिया और शंष भ. देवेन्द्रकीति जी दग्वने लगे। इसी प्रशाम्त
प्रशस्ति ही यहां दी गई है।" समय मैंने उसे श्रावश्यक समझकर उस पत्र को नोट कर प्रस्तुन प्रशस्ति में कई महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख है लिया कुछ शेष रहा वह नोट न कर मका, नोट करने की भना प्रारम्भ में प्राचार्य नामावली के बाद टक्कणि माहु का ही कर दी । अतएव प्रशस्ति अधूरी ही रही । पं. महेन्द्रकुमार उल्लंम्ब है और इसके बाद ग्रन्थ कार के या कवि द्वारा रचित जी वालं पत्र में से भी १०पंक्तियां लिखी गई फिर वह पत्र कतिपय पूर्ववती रचनाओं क नाम दिये हैं। उनमें से महाभी उन में ले लिया। प्रशस्ति पूरा करने के लिये कहा गया पुराण अनुपलब्ध है। इस तरह रंधू का करकंडु चरित किन्तु व्यर्थ । उप प्रति पर प्रथ का नाम सम्यकन्ध कौमुदी और मुदंपण चरिउ के अनुपलब्ध होने का उल्लंम्प परमालिखा था, सारा नथ देखकर नोट किया जाता, तब फिर नन्द जी ने किया है प्रो. राजाराम ने कुथुनाथ स्तुति का उस पर ग्रंथ के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता, ग्रंथ पूरा भी उल्लेख किया है। न देखने की बात लेख में लंग्वक ने स्वयं स्वीकृत की है, ऐसी प्रस्तुत सावय चरिउ की रचना ग्वालियर के राजा कीर्ति स्थिति में सावधानी की बात कसे कही जा सकती है ? सं. सिंह के समय में हुई इसलिय संवत् १५१०-१५३६ के बीच