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अमरसेनचरिउ रत्नशेखर प्रभावती नामक कन्या, घनवाहन उस कन्या के पिता, श्रुतकीर्ति पुरोहित और मदनमंजूषा प्रभावती की बन्धुमती नाम की माता थी। श्रुतकीर्ति मुनि हो गये थे। सर्प के काटने से बन्धुमती का मरण हआ और श्रुतकीति अपने पद से विचलित हुए। प्रभावती ने सन्मार्ग न छोड़ने को उसे बहुत समझाया । वह रुष्ट हुआ। उसे विद्यायें सिद्ध थीं अतः उसने विद्या भेजकर प्रभावती को बलात् मँगवाकर प्रथम तो एक निकटवर्ती वन में रखा किन्नु बाद में उसे उसने कैलास पर्वत पर छुड़वा दिया।
यहाँ प्रभावती की देवो पद्मावती से भेंट हुई। उसने यहाँ देवों को पूजा करते देखा । उसने पद्मावती देवी से देवों की पूजा सम्बन्धी जानकारी ली और कुसुमांजलि व्रत की विवि ज्ञात की। देवी की प्रेरणा से उसने यह व्रत लिया। मनि त्रिभुवनचन्द से अपनी तीन दिन की आय शेष ज्ञात करके इसने महातप धारण किया। इसके पिता श्रुतकीर्ति ने विद्या भेजकर इसका तप भंग करना चाहा किन्तु वह सफल नहीं हुआ। प्रभावती ने समाधिमरण किया तथा वह अच्युत स्वर्ग में पद्मनाथ नामक देव हुई। इस देव ने अवधिज्ञान से श्रुतकीर्ति को अपने पूर्वभव का पिता तथा बन्धुमतो को माता जानकर पृथिवी पर आकर उन्हें निज बोध कराया । फलस्वरूप श्रुतकीत्ति कुसुमांजलि व्रत पूर्वक मरकर अच्युत स्वर्ग में ही सामान्य देव हआ तथा बन्धुमती इसी स्वर्ग में कमला नाम की अप्सरा हुई । स्वर्ग से चयकर देव पद्मनाथ रत्नशेखर, श्रुतकीति का जीव घनवाहन और कमला मदनमंजूषा हुई। इनमें रत्नशेखर और धनवाहन केवली होकर मोक्ष गये तथा मदनमंजूषा तप करके स्वर्ग गयी।
[षष्ठं सन्धि] मुनि अमरसेन ने राजा देवसेन को वैश्य भूषण भरत और त्रिलोकमण्डन हाथी द्वारा धारण किये गये कुसुमांजलि व्रत का महत्त्व भी समझाया। उन्होंने उन्हें उनके पूर्वभवों का ज्ञान कराने के लिए बताया था कि राम के वनवास से लौटने पर भरत दीक्षा लेने तत्पर थे। राम ने उन्हें रोकने के लिए जलक्रीड़ा का भी प्रबन्ध किया किन्तु वे सफल नहीं हो सके । इसी बीच त्रिलोक मण्डन हाथी उन्मत्त अवस्था में अपना बन्धन तोड़कर नगरवासियों को सताता हुआ वहाँ आया जहाँ भरत थे। वह भरत को देखकर शान्त हो गया था ।
भरत ने हाथी के शान्त हो जाने का कारण मुनि देशभूषण से पूछा। मुनि ने भरत को बताया था कि सूर्योदय और चन्द्रोदय वह और यह हाथी
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