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आजीवन आममसाहित्यसेवा, संघसेवा, तीर्थ सेवा तथा शासनको दीपानेवाले धार्मिक कार्य-उद्यापन, उषधान, दीक्षा, प्रतिष्ठा करवानेवाले तथा अंत समयमें पंचमकालमें अद्वितीय अंतिम आराधना करनेवाले पूज्यपाद आगमवाचनादाता, आगमपुरुषके उपदेशक, युगप्रधान सदृश, विक्रम संवत १९९९ माघ वदी २ को पालीताणास्थित मागमम दिरमें बिराजित प्रतिमाजी भादि की अंजनशलाका तथा माघ वदी ५ को प्रतिष्ठा; विक्रम संवत २००४ माघ सुदी ३ शुक्रवार को सुरतस्थित श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागममंदिर में विराजित १२० प्रतिमाजी भादिकी प्रतिष्ठा करनेवाले सुरतस्थित शेठ मछुभाई दीपचंद की धर्मशालामें विक्रम संवत २००५ के चातुमास में अपना अंतसमय नजदीक जानकर अंतिम आराधना हेतु 'भाराधना मार्ग' नामक ग्रंथ की रचना करनेवाले विक्रम संवत् २००६ वैशाख सुदी ५ से पंद्रह दिनो के अनशन पूर्वक भर्षपद्मासन मुद्रामें मौनावस्था में आघश्री विक्रम संवत २००६ वैशाख बी ५ शनिवार स्टा० टा० १६-३१ ( दोपहर के ४-३२) अमृत घडीमें अनन्य पट्टधर गच्छाधिपति आचार्य देवश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज के स्वमुखसे चतुर्विध संघकी उपस्थितिमें नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते करते निर्वाण को प्राप्त हुने।
आपश्री के बालदीक्षित शिष्य मुनि श्री अरुणोदयसागरजी म. ने वि. सं. १९९१ मिगसर सुद १४ को दीक्षा ग्रहण की उस दिनसे पूज्यश्री के जीवनपर्यंत अनुमोदनीय सेवा की।
गुरुदेवश्री आज तो हमारे बीच नहीं है फिर भी सुरतमें गोपीपुरामें श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागमम दिए, आज भी भापकी स्मृतिस्वरूप है। उसके सामने सरकारी स्पेशल भाईरसे श्री भागमाबारक