Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan
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- इसका उत्तर देते हुए नन्दीसूत्र में सूर्य और बादल का दृष्टान्त दिया है। सूर्य पर जब बादल आ जाते हैं तो उसकी प्रभा या प्रकाश आवृत्त हो जाता है। यदि बादल सघन होते हैं तो प्रकाश अधिक मात्रा में आवृत्त रहता है। जितने भाग में बादल ढंके रहते हैं उतना सूर्य का प्रकाश भी मन्द रहता है। इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान की अनन्त सत्ता है, परन्तु मोह कर्म और ज्ञानावरणीय कर्म की सघनता के कारण जितना भाग आवृत्त रहता है, ज्ञान का प्रकाश उतना ही कम होता है। कर्मों के क्षयोपशम भाव की तरतमता के कारण ही ज्ञान शक्ति में अन्तर पड़ता है।
आत्मा में पूर्णतः प्रकाशित अनन्त ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। परन्तु जब तक वह ज्ञान-सूर्य समग्र रूप में प्रकाशित नहीं होता तब तक मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान की उपलब्धि होती रहती है। इसलिए ज्ञान मूलतः एक होने पर भी कर्मों के क्षयोपशम के कारण उसके पाँच भेद बताये हैं।
चूर्णिकार ने प्रश्न उठाया है कि सूत्र की आदि में पाँच ज्ञान का वर्णन क्यों किया है ? जबकि इस सूत्र का विषय तो श्रुतज्ञान का वर्णन करना ही है। इसका समाधान भी चूर्णिकार ने दिया है-विग्धोवसमणनिमित्तं आदीए मंगल परिग्गहं करेइ-विघ्न की उपशान्ति के लिए आदि में 'मंगल' किया जाता है। जैसे-भाव मंगल के रूप में ‘णमो अरिहंताणं' पद का स्मरण किया जाता है। उसी प्रकार णाणं पयासयरे-ज्ञान समस्त भावों का प्रकाश करने वाला है; आत्म आनन्द प्रदाता होने से स्वयं मंगल रूप है। अतः ज्ञान को मंगल रूप मानकर यहाँ सर्वप्रथम पाँच प्रकार के ज्ञान का कथन है। पाँच ज्ञान का स्वरूप
(१) आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान)-मन और इन्द्रियों की सहायता से जो बुद्धि, संवेदना और अनुभव रूप ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। इसे सामान्यतया मतिज्ञान कहते हैं।
(२) श्रुतज्ञान-बोले गये शब्द, ध्वनि या वचन द्वारा अर्थ रूप में ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यद्यपि यह भी इन्द्रिय और मन की सहायता से ही होता है परन्तु इसमें चिन्तन व मनन की मुख्यता रहती है, अतः इसे बुद्धि अथवा मन की क्रिया माना है। इसके दो नियम हैं-(१) मतिपूर्वक, और (२) परोपदेश से। नन्दीसूत्र में बताया है-पुव्वं सुयं न मइ सुयपुब्बिआ मतिज्ञान के बाद श्रुतज्ञान होता है तथा वह शब्द आदि सापेक्ष होता है। तत्त्वार्थ सूत्र (१/११) के अनुसार यह परोपदेश से होता है-परोपदेशत्वाच्च श्रुतज्ञानम्।
(३) अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा द्वारा जो अर्थबोध होता है, वह अवधिज्ञान है। इसमें भी दो नियम हैं-(१) यह केवल रूपी पदार्थों को ही प्रत्यक्ष
आवश्यक प्रकरण
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